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Santaliaa aur santal

By: Contributor(s): Material type: TextTextPublication details: New Delhi Rajkamal 2024Description: 126pISBN:
  • 9789360862602
Subject(s): DDC classification:
  • H 305.56 MAN
Summary: ‘सन्तालिया और सन्ताल’ पश्चिमी कैनन के बाहर की संस्कृतियों और समाजों के प्रति एक पाश्चात्य लेखक के आकर्षण का अनूठा परिणाम है। ई. जी. मन ने राजमहल पहाड़ियों की तलहटी से लेकर बीरभूम, बर्दवान, मिदनापुर और कटक में अवस्थित विन्ध्य की दक्षिण-पूर्वी पर्वतमाला तक फैले क्षेत्र को ‘सन्तालिया’ अर्थात सन्ताल-भूमि कहा है, जिसे तब सन्ताल परगना के नाम से जाना जाता था, जहाँ वे सहायक आयुक्त के रूप में कार्यरत रहे थे। उनकी बौद्धिक जिज्ञासा, भारत के स्वदेशी समुदायों खासकर आदिवासी सन्ताल-समूह से सहानुभूतिपूर्ण जुड़ाव ने उन्हें सन्ताल-जीवन की पेचीदगियों, उनके रीति-रिवाजों, विश्वासों, कथा-किंवदन्तियों, गीत-संगीत और जमीन से उनके सहजीवी सम्बन्धों को गहराई से समझने का अवसर दिया। मन ने इस पुस्तक में सन्तालों के जन्म से लेकर मृत्यु तक उनके जीवन के तमाम पक्षों का वर्णन किया है। उन्होंने इन आदिम लोगों को सहज, सरल, ईमानदार और सच बोलने वाला पाया, जिनका जीवन इन गुणों के बावजूद नशे और अन्धविश्वास की दोहरी बुराइयों से पीड़ित था। उन्होंने सन्तालों द्वारा घने जंगलों को साफ कर खेती के लिए जमीन निकालने और उनकी जमीनों को हड़प लेने वाले बंगाली महाजनों के प्रति उनकी सतर्कता का विवरण भी दिया है। ऐतिहासिक सन्ताल-विद्रोह और सन्तालों के बीच ईसाई मिशनरियों के कार्यों का पर्याप्त उल्लेख भी इस पुस्तक में किया गया है। इन विवरणों में सचाई के प्रति लेखक का आग्रह इस हद तक स्पष्ट है कि वह विद्रोह के लिए सन्तालों पर उंगली उठाने के बजाय महाजनों की लोलुपता और धूर्तता तथा व्यवस्था में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को रेखंकित करता है। वस्तुतः सिर्फ मानववैज्ञानिक ब्योरों से परे, यह पुस्तक परम्परा और आधुनिकता के दोराहे पर खड़े लोगों की आकांक्षाओं और उनके आगे बढ़ने की राह के अवरोधों को दर्शाती है। साथ ही परिवर्तन के मुहाने पर पहुँच चुकी एक संस्कृति की सूक्ष्म समझ प्रदान करती है। सन्देह नहीं कि अपने एन्साइक्लोपीडिक विस्तार और दुर्लभ प्रामाणिकता के कारण यह पुस्तक स्थायी महत्त्व प्राप्त कर चुकी है।
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Books Books Gandhi Smriti Library H 305.56 MAN (Browse shelf(Opens below)) Available 180305
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‘सन्तालिया और सन्ताल’ पश्चिमी कैनन के बाहर की संस्कृतियों और समाजों के प्रति एक पाश्चात्य लेखक के आकर्षण का अनूठा परिणाम है। ई. जी. मन ने राजमहल पहाड़ियों की तलहटी से लेकर बीरभूम, बर्दवान, मिदनापुर और कटक में अवस्थित विन्ध्य की दक्षिण-पूर्वी पर्वतमाला तक फैले क्षेत्र को ‘सन्तालिया’ अर्थात सन्ताल-भूमि कहा है, जिसे तब सन्ताल परगना के नाम से जाना जाता था, जहाँ वे सहायक आयुक्त के रूप में कार्यरत रहे थे। उनकी बौद्धिक जिज्ञासा, भारत के स्वदेशी समुदायों खासकर आदिवासी सन्ताल-समूह से सहानुभूतिपूर्ण जुड़ाव ने उन्हें सन्ताल-जीवन की पेचीदगियों, उनके रीति-रिवाजों, विश्वासों, कथा-किंवदन्तियों, गीत-संगीत और जमीन से उनके सहजीवी सम्बन्धों को गहराई से समझने का अवसर दिया। मन ने इस पुस्तक में सन्तालों के जन्म से लेकर मृत्यु तक उनके जीवन के तमाम पक्षों का वर्णन किया है। उन्होंने इन आदिम लोगों को सहज, सरल, ईमानदार और सच बोलने वाला पाया, जिनका जीवन इन गुणों के बावजूद नशे और अन्धविश्वास की दोहरी बुराइयों से पीड़ित था। उन्होंने सन्तालों द्वारा घने जंगलों को साफ कर खेती के लिए जमीन निकालने और उनकी जमीनों को हड़प लेने वाले बंगाली महाजनों के प्रति उनकी सतर्कता का विवरण भी दिया है। ऐतिहासिक सन्ताल-विद्रोह और सन्तालों के बीच ईसाई मिशनरियों के कार्यों का पर्याप्त उल्लेख भी इस पुस्तक में किया गया है। इन विवरणों में सचाई के प्रति लेखक का आग्रह इस हद तक स्पष्ट है कि वह विद्रोह के लिए सन्तालों पर उंगली उठाने के बजाय महाजनों की लोलुपता और धूर्तता तथा व्यवस्था में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को रेखंकित करता है। वस्तुतः सिर्फ मानववैज्ञानिक ब्योरों से परे, यह पुस्तक परम्परा और आधुनिकता के दोराहे पर खड़े लोगों की आकांक्षाओं और उनके आगे बढ़ने की राह के अवरोधों को दर्शाती है। साथ ही परिवर्तन के मुहाने पर पहुँच चुकी एक संस्कृति की सूक्ष्म समझ प्रदान करती है। सन्देह नहीं कि अपने एन्साइक्लोपीडिक विस्तार और दुर्लभ प्रामाणिकता के कारण यह पुस्तक स्थायी महत्त्व प्राप्त कर चुकी है।

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