Ibarat se giri matrayean
Vajpeyi, Ashok
Ibarat se giri matrayean - Bikaner Vagdevi 2002 - 144 p.
कविता कालसम्भवा होती है, कालबाधित नहीं। अशोक वाजपेयी की कविता न केवल इस बात से बखूबी वाक़िफ़ है बल्कि यह भी जानती है कि कविता का समय सम्बन्ध सर्जनात्मक तभी हो पाता है जब समय की सेवा में उपस्थित होने के बजाय कविता उसी के माध्यम से उस का अतिक्रमण करती और अपना निजी सच बरामद करती है। ये कविताएँ समय के सच की अनदेखी न करते हुए, बल्कि उसे बूझते हुए — और शायद इसी कारण - चाहती हैं कि शुरू को आख़िर तक ले जाने वाली डोर /सपने की ही हो, भले सच से बिंधी हुई क्योंकि कविता अन्ततः सपने के परिवार की होती है, सच की बिरादरी की नहीं। कविता की प्रक्रिया अर्थात् निजी सत्य को व्यापक सत्य में रूपान्तरित करने के लिए ये कविताएँ आधुनिक हिन्दी कविता में एक निजी भाषा और काव्यविधि का आविष्कार करती हैं। यह काव्यविधि स्मृति और वर्तमान को एक दूसरे के बरक्स रखने में है जहाँ सपना दोनों का सन्दर्भ बिन्दु है— सपना जो जितना अतीत है, उतना ही भविष्य भी। इस के लिए अशोक वाजपेयी जो भाषा बुनते हैं वह जिस हद तक एक निजी अनुभूति को व्यापकत्व और सम्प्रेषणीयता देती है, उसी हद तक व्यापक सत्य को निजी प्रामाणिकता भी, जिस में निजता और व्यापकत्व का भेद मिट-सा जाता है। इसीलिए पोते के लिए लिखी गयी कविताओं की भाषिक संरचना और संवेदना के अन्तस्सूत्र आशविट्ज पर केन्द्रित कविताओं से मिल जाते हैं। रूप और संवेदन के काव्यात्मक एकत्व का एक तरीका शायद यह भी है जहाँ विषयों की भिन्नता के बावजूद उन की अन्तर्वस्तु के रेशे अन्तः ग्रथित होते हैं।
अशोक वाजपेयी की कविता समय के धूल-धक्खड़, खून कीचड़, राख से जलने या भस्म होने से बचे हुए शब्द उठा कर उन में पवित्रता की खनखनाहट सुनती और इस प्रकार शब्द को पुनः एक विश्वसनीयता देना चाहती है—अपने समय के बरक्स इस आकांक्षा और कोशिश में ही तो कविकर्म की सार्थकता है। इस संग्रह की कविताएँ इसी सार्थकता का अर्जन है।
8187482230
Hindi poetry
H 891.4301 / VAJ
Ibarat se giri matrayean - Bikaner Vagdevi 2002 - 144 p.
कविता कालसम्भवा होती है, कालबाधित नहीं। अशोक वाजपेयी की कविता न केवल इस बात से बखूबी वाक़िफ़ है बल्कि यह भी जानती है कि कविता का समय सम्बन्ध सर्जनात्मक तभी हो पाता है जब समय की सेवा में उपस्थित होने के बजाय कविता उसी के माध्यम से उस का अतिक्रमण करती और अपना निजी सच बरामद करती है। ये कविताएँ समय के सच की अनदेखी न करते हुए, बल्कि उसे बूझते हुए — और शायद इसी कारण - चाहती हैं कि शुरू को आख़िर तक ले जाने वाली डोर /सपने की ही हो, भले सच से बिंधी हुई क्योंकि कविता अन्ततः सपने के परिवार की होती है, सच की बिरादरी की नहीं। कविता की प्रक्रिया अर्थात् निजी सत्य को व्यापक सत्य में रूपान्तरित करने के लिए ये कविताएँ आधुनिक हिन्दी कविता में एक निजी भाषा और काव्यविधि का आविष्कार करती हैं। यह काव्यविधि स्मृति और वर्तमान को एक दूसरे के बरक्स रखने में है जहाँ सपना दोनों का सन्दर्भ बिन्दु है— सपना जो जितना अतीत है, उतना ही भविष्य भी। इस के लिए अशोक वाजपेयी जो भाषा बुनते हैं वह जिस हद तक एक निजी अनुभूति को व्यापकत्व और सम्प्रेषणीयता देती है, उसी हद तक व्यापक सत्य को निजी प्रामाणिकता भी, जिस में निजता और व्यापकत्व का भेद मिट-सा जाता है। इसीलिए पोते के लिए लिखी गयी कविताओं की भाषिक संरचना और संवेदना के अन्तस्सूत्र आशविट्ज पर केन्द्रित कविताओं से मिल जाते हैं। रूप और संवेदन के काव्यात्मक एकत्व का एक तरीका शायद यह भी है जहाँ विषयों की भिन्नता के बावजूद उन की अन्तर्वस्तु के रेशे अन्तः ग्रथित होते हैं।
अशोक वाजपेयी की कविता समय के धूल-धक्खड़, खून कीचड़, राख से जलने या भस्म होने से बचे हुए शब्द उठा कर उन में पवित्रता की खनखनाहट सुनती और इस प्रकार शब्द को पुनः एक विश्वसनीयता देना चाहती है—अपने समय के बरक्स इस आकांक्षा और कोशिश में ही तो कविकर्म की सार्थकता है। इस संग्रह की कविताएँ इसी सार्थकता का अर्जन है।
8187482230
Hindi poetry
H 891.4301 / VAJ