Pahadi stiriya
Material type:
- 9788186810153
- UK 305.4205451 PAN
Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
---|---|---|---|---|---|---|
![]() |
Gandhi Smriti Library | UK 305.4205451 PAN (Browse shelf(Opens below)) | Available | 168329 |
कुछ साल पहले कैथरीन यू. (Katherine Boo), की लिखी हुई किताब बियॉण्ड द ब्यूटिफुल फॉरएवर्स (Beyond the Beautiful Forevers) पढ़ी थी, बहुत अच्छी लगी। किताब मुम्बई की एक झोपडपट्टी में रहने वाले लोगों के संघर्षपूर्ण जीवन, सुख-दुख और उनकी गरीबी से जूझते जीवन का अन्तरंग तथा सहानुभूतिपूर्ण व सजीव दस्तावेज है। यूं तो भारत में गरीबी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है- खासकर अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों द्वारा। लेकिन यह सब एक खास वर्ग (अपने जैसे ही लोगों) को सम्बोधित रहता है। आमतौर पर इनकी भाषा नीरस, उबाऊ और तकनीकी शब्दावली से भरपूर होने से आम पाठक को अपनी ओर खींचने में सर्वथा नाकाम साबित होती है। इस वजह से हमारे देश में गरीबी व अन्य आर्थिक-सामाजिक समस्याओं पर आधारित संवाद चन्द विशेषज्ञों तक ही सीमित रह जाता है। ज्यादातर अंग्रेजी भाषा और अकादमिक पत्रिकाओं में केन्द्रित होने के कारण इसका दायरा और भी सीमित होता है। कैथरीन बू की बू किताब की यह विशेषता है कि यह अत्यन्त सरल शब्दों में एक उपन्यास की तरह लिखी होने के कारण, पाठकों को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींचती है। गरीबी व उससे ऊपर उठने के आम लोगों के प्रयासों व संघर्ष का जो सहज चित्रण व विश्लेषण (बगैर समाजशास्त्री शब्द का इस्तेमाल किये हुए) इस पुस्तक में मिलता है वह अन्य किसी अकादमिक लेखन में नहीं मिलता। प्रख्यात इतिहासकार व स्तम्भकार रामचन्द्र गुहा ने पुस्तक के बारे में कहा है कि यह समकालीन भारत पर सबसे अच्छी किताब है तथा पिछले पच्चीस वर्षों में इससे अच्छा कथेतर साहित्य (Non-fiction) उन्होंने नहीं पढ़ा है।
अनुराधा पांडे द्वारा लिखी गई पुस्तक 'पहाड़ी स्त्रियों को इसी शैली की श्रेणी में रखा जा सकता है। अत्यन्त रोचक विश्लेषणात्मक तथा सरल भाषा में लिखी गई यह पुस्तक मूलतः स्त्रियों की कही अनकही गाथा है। इस पुस्तक में पहाड़ के गाँवों में रहने वाली आम स्त्रियों की, जिनकी ओर हम आम शहरवासियों का ध्यान यदा-कदा ही जाता है, और विशेषकर तब, जब हम पहाड़ में एक सैलानी के रूप में उन्हें मोटर पर सवार होकर सड़क से गुजरते हुए, खेतों में काम करते हुए, गाय-भैंस हाँकते हुए या सिर व पीठ पर लकड़ी अथवा घास-पात का बोझ ढोते हुए ही देखते हैं। परन्तु उनके संघर्षमय जीवन, सुख-दुख, परिवार की देख-रेख के साथ-साथ आजीविका की चिन्ता, अपने जल जंगल जमीन को सुरक्षित रखने का संघर्ष तथा सामाजिक बन्ह नों से बाहर निकलकर अपने गाँव व समाज की बेहतरी के लिये कुछ कर गुजरने की उस अदृश्य लालसा से हम सर्वथा अनभिज्ञ ही रहते हैं।
सही मायनों में अनुराधा पाण्डे की यह किताब महिलाओं के उन जीते जागते अनुभवों का प्रमाण है जिसे उन्होंने पिछले कई वर्षों के दौरान उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में इन ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने में हासिल किया है, उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान, अल्मोड़ा पिछले कई सालों से गाँव स्तर पर लोगों के साथ विभिन्न कार्यक्रमों को संचालित कर रहा है। जमीनी स्तर पर संस्थान ने पहाड़ के ग्रामीण लोगों, विशेषकर स्त्रियों के जीवन, आर्थिक-सामाजिक परिवेश, आजीविका से जुड़े सवाल तथा पर्यावरण (जल-जंगल-जमीन) से सम्बन्ध और उनकी समस्याओं के बारे में गहरी समझ हासिल की है। यह समझ लोगों के साथ लगातार काम करने व परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध बनाने के बाद ही उपजी है, न कि उस बाहरी अन्वेषक के रूप में जो कि आँकड़ों और जानकारियों के एकत्र करने तक सीमित रहती है और बाद में पीछे मुड़कर देखता भी नहीं। ग्रामीण लोग उस अन्वेषक के लिये केवल सूचना प्रदान करने वाले (reopondents) मात्र होते हैं; अध्ययन के हिस्सेदार नहीं। यही प्रमुख कमजोरी है सामाजिक विषयों और प्रश्नों के बारे में तथाकथित वैज्ञानिक अध्ययन की। अनुराधा पांडे की यह पुस्तक इस सोच से एकदम हटकर है, और इसी खासियत के कारण अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है। लेखिका के ही शब्दों में- 'यह अनुभव- गाथा उत्तराखण्ड के ठेठ पहाड़ी स्त्रियों के जीवन में आ रहे बदलावों से आ रही खलबली का दस्तावेज है।
अनुराधा पांडे ने उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान के सौजन्य से वर्ष 2001 में उत्तराखण्ड महिला परिषद की स्थापना करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। तब से वह निरन्तर परिषद के माध्यम से उत्तराखण्ड के गाँवों में 22 स्वैच्छिक संस्थाओं 466 महिला संगठन तथा 16,000 महिला सदस्यों के साथ निकट से जुड़कर काम कर रही है।
There are no comments on this title.