Prachin bharat mein dharam ke samajik aadhar / tr. by Narendra Vyas 1998
Material type:
- 8186684301
- H 294.5 NAN
Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Gandhi Smriti Library | H 294.5 NAN (Browse shelf(Opens below)) | Available | 66893 |
प्रत्येक दार्शनिक परंपरा, चिंतनधारा और धार्मिक विश्वास अपने समय के सामाजिक-आर्थिक विकास का सहभागी होता है, इसलिए सामाजिक विकास और उसमें सक्रिय भौतिक शक्तियों के चरित्र को समझे बिना इनमें से किसी को भी समझना संभव नहीं है।
इस पुस्तक में तीसरी सदी से बारहवीं सदी तक के दौर के धार्मिक विकास के सामाजिक आधारों की तलाश की गई है। इस अध्ययन के प्रथम चरण में गुप्तकाल तथाकथित स्वर्णयुग का ऐतिहासिक विवेचन किया गया है जब बड़े पैमाने पर नगरों का पतन हुआ। यह वह दौर है जिसमें जिंसों का उत्पादन गिरा और इस उत्पादन पर निर्भर रहनेवाले नगर के लोगों को जीविका के दूसरे रास्ते तलाशने को मजबूर होना पड़ा। इस प्रक्रिया में वीरान हुए नगरों को 'तीर्थस्थान' घोषित कर दिया गया और तीर्थयात्रा को बड़े पैमाने पर लोकप्रिय बनाया गया तथा इसे पवित्रता का दर्जा दिया गया।
इस क्रम में वैश्यों और शूद्रों को पातक कहा गया तथा उनके पेशे को अधम कर्म का दर्जा दिया गया। लेकिन उनसे काम कराना और उनसे दानदक्षिणा लेना विधि और धर्म सम्मत माना गया। उनसे कहा गया कि कलियुग में दान करने से पुण्य होता है।
सातवीं से दसवीं सदी के दौरान समाज का सामंतीय विकास इस स्वर्णयुग के बाद ही घटित होता है। इस दौर में कृषि उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी हुई। इससे आर्थिक रूप से मंदिरों का कायाकल्प हो गया और वे अधिशेष संग्रह के केंद्र बन गए। इसमें भक्ति आंदोलन और मठों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी। ग्यारहवीं-बारहवीं सदियों में कृषि-उत्पादन में इतनी वृद्धि हुई कि मरी हुई मुद्रा अर्थव्यवस्था में फिर से जान आ गई, बाजार जीवित हो उठे। इस पुस्तक में इन सारी बातों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
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