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Kashmiri Ramawtarcharit 1975

By: Material type: TextTextPublication details: Lucknow; Bhuwanvani Trust; 1975.Description: 488 pSubject(s): DDC classification:
  • H 294.5922
Summary: भारत के स्वातंत्र्योत्तर काल में अपने इस विशाल देश की अनेक राज्य-भाषाओं के विकास को देखकर मन विभोर हो जाता है, और राष्ट्र भाषा हिन्दी की स्रोतस्विनी में जब इन अनेक भाषाओं का सुरम्य संगम देखने को मिलता है तो आनन्दातिरेक की प्राप्ति होती है। आय के रूप संपर्क भाषा में हिन्दी भाषा एक सर्वतत्त्वग्राही माध्यम है, अतः इसके भंडार को प्रान्तीय आंचलों की भाषाओं के शब्दों से समृद्ध करना प्रत्येक बुद्धि वादी भारतीय का कर्त्तव्य है । यही एक ऐसा कदम है जो राष्ट्रीय एकता एवं भावात्मक एकता के निर्माण में बहुत बड़ा संबल सिद्ध हो सकता है। विभिन्न राज्यों की भाषाओं में लिये गये ग्रन्थ रत्नों को हिन्दी लिपि में उनके हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित करने का काम बहुत ही महत्व पूर्ण है l जहाँ एक ओर भौगोलिक परिसीमाओं के कारण कश्मीर की घाटी शताब्दियों तक अलग-थलग रही स्वास्थ्यमंत्री, भारत सरकार वहाँ दूसरी ओर ऐतिहासिक महत्व के समकालीन ग्रन्थों एवं निदेश सामग्री के मूलग्रन्थों के लुप्त होने के परिणाम स्वरूप कश्मीरी भाषा एवं उसके साहित्य की प्राचीनता अथवा उसके उद्गम पर पर्दा ही पड़ा रहा। अतः यह विवादास्पद विषय है कि कश्मीरी भाषा का उद्गम क्या है। शब्द शोध एवं भाषाविज्ञान की दृष्टि से कश्मीरी भाषा का उद्गम सिद्ध करना . अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण विषय है। इतना तो स्पष्ट है कि शताब्दियों से होते आ रहे राजनीतिक परिवर्तनों के साथ-साथ इस पर उर्दू, अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, डोगरी एवं अंग्रेजी भाषाओं का प्रभाव पड़ा, यद्यपि मूलतः इस भाषा की आधारशिला पर संस्कृत भाषा की एक नैसगिक छाप देती है। भले ही इस भाषा की लिपि आज से छः सौ वर्ष पूर्व शारदा रही हो, उसे ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से अनुमान-लिपि ही मानना होगा, न कि परिपूर्ण । कालान्तर में यह लिपि भी लुप्तप्राय हो गई और अब उसकी जगह दो समानान्तर लिपियों ने ले ली है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से देवनागरी लिपि ही बहुत हद तक कश्मीरी भाषा को लिपिबद्ध करने में सहायक हो सकती है। कदाचित् उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के दूसरे दशाब्द में जन्मे प्रकाशराम कुर्यंग्रामी द्वारा कश्मीरी भाषा में रचित 'रामावतारचरित' अथवा पद्यबद्ध रामायण, कश्मीरी श्रुति-परम्पराओं की विशेषता लिये भक्तिरस से बीधी वही रामकथा है जो उत्तर भारत की नस-नस में समायी हुई है। मर्यादा gerie की जीवन लीला को इस संसार की कर्मभूमि में इसलिए भी महत्व दिया गया है कि यह नैतिक मानों के आधार पर आदर्श जीवन बिताने एवं नश्वरता की निराशा से ओतप्रोत जीवन को सरस बनाने में एक निष्ठावान मार्ग प्रशस्त करती है जिसमें मनुष्य अपनी कर्त्तव्यपरायणता से नहीं करता । आज की ह्रासशील नैतिकता में यदि भगवान राम का आदर्श जीवन में उतारा जाय तो अनेक आधिभौतिक एवं आधिदैविक संकट एवं संताप कट सकते हैं। प्रस्तुत कश्मीरी रामायण के प्रणेता भक्तिरस के मतवाले कवि की भाषा में समस्तपद संस्कृतनिष्ठ तो हैं ही किन्तु फ़ारसी भाषा के सौम्य शब्दों का भी बड़ा सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है । वस्तुतः इन दो भाषाओं के सम्मिश्रण से पदलालित्य और भी निखर उठा है। भाषा का आधार एवं कवि की विचरणभूमि कश्मीरी भाषा तथा कश्मीर की परम्पराएं ही हैं जो कथानक आदि की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण पर आधारित हैं । सात काण्डों में विभक्त इस पद रचना में (लीला-वन्दना के रूप में) जहाँ इतिवृत्तात्मक एवं गीत-शैली काही प्रयोग हुआ है वहाँ शब्द की तीन शक्तियों में से अभिधा एवं व्यंजना शक्तियों का प्राधान्य है, यद्यपि कहीं-कहीं लक्षण शक्ति का भी सुन्दर प्रयोग दिखाई पड़ता है । छन्दों में लय, ताल और सुर है और भाषा का प्रवाह स्रोतस्विनी के बाद सा कर्णप्रिय एवं अनवरत मालूम पड़ता है। भक्तिरस में कश्मीरी 'लोल' (सूरदास की सुधि का भाव ) का सरस पुट रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, श्रोता को विह्वल कर देता है। रूपक, उपमा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का भी सुन्दर एवं सहज प्रयोग हुआ है। उदास नायक के चरित्र, आदि को भी कवि ने प्रच्छन्न अथवा गौण रूप से चित्रित किया है। राम कथा के सूत्र में सीता का रावण की सुता होना और अपने कुटुम्बजन के उपालम्भ पर राम द्वारा सीता का परित्याग, कवि की अपनी विशेष मान्यतायें हैं । इन सब कारणों से इस काव्य रचना को कश्मीरी भाषा का महाकाव्य समझा जाना चाहिए।
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भारत के स्वातंत्र्योत्तर काल में अपने इस विशाल देश की अनेक राज्य-भाषाओं के विकास को देखकर मन विभोर हो जाता है, और राष्ट्र भाषा हिन्दी की स्रोतस्विनी में जब इन अनेक भाषाओं का सुरम्य संगम देखने को मिलता है तो आनन्दातिरेक की प्राप्ति होती है। आय के रूप संपर्क भाषा में हिन्दी भाषा एक सर्वतत्त्वग्राही माध्यम है, अतः इसके भंडार को प्रान्तीय आंचलों की भाषाओं के शब्दों से समृद्ध करना प्रत्येक बुद्धि वादी भारतीय का कर्त्तव्य है । यही एक ऐसा कदम है जो राष्ट्रीय एकता एवं भावात्मक एकता के निर्माण में बहुत बड़ा संबल सिद्ध हो सकता है। विभिन्न राज्यों की भाषाओं में लिये गये ग्रन्थ रत्नों को हिन्दी लिपि में उनके हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित करने का काम बहुत ही महत्व पूर्ण है l जहाँ एक ओर भौगोलिक परिसीमाओं के कारण कश्मीर की घाटी शताब्दियों तक अलग-थलग रही स्वास्थ्यमंत्री, भारत सरकार वहाँ दूसरी ओर ऐतिहासिक महत्व के समकालीन ग्रन्थों एवं निदेश सामग्री के मूलग्रन्थों के लुप्त होने के परिणाम स्वरूप कश्मीरी भाषा एवं उसके साहित्य की प्राचीनता अथवा उसके उद्गम पर पर्दा ही पड़ा रहा। अतः यह विवादास्पद विषय है कि कश्मीरी भाषा का उद्गम क्या है। शब्द शोध एवं भाषाविज्ञान की दृष्टि से कश्मीरी भाषा का उद्गम सिद्ध करना . अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण विषय है। इतना तो स्पष्ट है कि शताब्दियों से होते आ रहे राजनीतिक परिवर्तनों के साथ-साथ इस पर उर्दू, अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, डोगरी एवं अंग्रेजी भाषाओं का प्रभाव पड़ा, यद्यपि मूलतः इस भाषा की आधारशिला पर संस्कृत भाषा की एक नैसगिक छाप देती है। भले ही इस भाषा की लिपि आज से छः सौ वर्ष पूर्व शारदा रही हो, उसे ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से अनुमान-लिपि ही मानना होगा, न कि परिपूर्ण । कालान्तर में यह लिपि भी लुप्तप्राय हो गई और अब उसकी जगह दो समानान्तर लिपियों ने ले ली है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से देवनागरी लिपि ही बहुत हद तक कश्मीरी भाषा को लिपिबद्ध करने में सहायक हो सकती है।

कदाचित् उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के दूसरे दशाब्द में जन्मे प्रकाशराम कुर्यंग्रामी द्वारा कश्मीरी भाषा में रचित 'रामावतारचरित' अथवा पद्यबद्ध रामायण, कश्मीरी श्रुति-परम्पराओं की विशेषता लिये भक्तिरस से बीधी वही रामकथा है जो उत्तर भारत की नस-नस में समायी हुई है। मर्यादा gerie की जीवन लीला को इस संसार की कर्मभूमि में इसलिए भी महत्व दिया गया है कि यह नैतिक मानों के आधार पर आदर्श जीवन बिताने एवं नश्वरता की निराशा से ओतप्रोत जीवन को सरस बनाने में एक निष्ठावान मार्ग प्रशस्त करती है जिसमें मनुष्य अपनी कर्त्तव्यपरायणता से नहीं करता । आज की ह्रासशील नैतिकता में यदि भगवान राम का आदर्श जीवन में उतारा जाय तो अनेक आधिभौतिक एवं आधिदैविक संकट एवं संताप कट सकते हैं।

प्रस्तुत कश्मीरी रामायण के प्रणेता भक्तिरस के मतवाले कवि की भाषा में समस्तपद संस्कृतनिष्ठ तो हैं ही किन्तु फ़ारसी भाषा के सौम्य शब्दों का भी बड़ा सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है । वस्तुतः इन दो भाषाओं के सम्मिश्रण से पदलालित्य और भी निखर उठा है। भाषा का आधार एवं कवि की विचरणभूमि कश्मीरी भाषा तथा कश्मीर की परम्पराएं ही हैं जो कथानक आदि की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण पर आधारित हैं । सात काण्डों में विभक्त इस पद रचना में (लीला-वन्दना के रूप में) जहाँ इतिवृत्तात्मक एवं गीत-शैली काही प्रयोग हुआ है वहाँ शब्द की तीन शक्तियों में से अभिधा एवं व्यंजना शक्तियों का प्राधान्य है, यद्यपि कहीं-कहीं लक्षण शक्ति का भी सुन्दर प्रयोग दिखाई पड़ता है । छन्दों में लय, ताल और सुर है और भाषा का प्रवाह स्रोतस्विनी के बाद सा कर्णप्रिय एवं अनवरत मालूम पड़ता है। भक्तिरस में कश्मीरी 'लोल' (सूरदास की सुधि का भाव ) का सरस पुट रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, श्रोता को विह्वल कर देता है। रूपक, उपमा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का भी सुन्दर एवं सहज प्रयोग हुआ है। उदास नायक के चरित्र, आदि को भी कवि ने प्रच्छन्न अथवा गौण रूप से चित्रित किया है। राम कथा के सूत्र में सीता का रावण की सुता होना और अपने कुटुम्बजन के उपालम्भ पर राम द्वारा सीता का परित्याग, कवि की अपनी विशेष मान्यतायें हैं । इन सब कारणों से इस काव्य रचना को कश्मीरी भाषा का महाकाव्य समझा जाना चाहिए।

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