Paṃva daba, paṃva jama
Material type:
- 9788193564868
- H 891.43872 GAU
Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Gandhi Smriti Library | H 891.43872 GAU (Browse shelf(Opens below)) | Available | 168176 |
हल्क फुल्क अदाज में बड़ी से बड़ी बात यू कह जाना कि चेहरे पर तो हल्की सी मुस्कान आए परंतु मस्तिष्क घंटों तक वही बात सोचता रह जाए, कुछ यही खासियत होती है व्यंग्य की। उसकी यही विशेषता उसे अन्य साहित्यिक विधाओं से जुदा करती है। व्यंग्य मीठा होता है, तीखा होता है, इसलिए सीधे दिल तक पहुंचता है और दिमाग में एक कसक छोड़ जाता है।
ऐसे में जब व्यंग्य के संदर्भ में बात करें तो अशोक गौतम के व्यंग्य और भी सटीक और असरदार हो जाते हैं क्योंकि वहां व्यंग्य में रोजमर्रा की जिंदगी का अक्स नजर आता है। अकसर उनके व्यंग्य पढ़ और सुन कर यह सोच जन्म लेती है कि कैसे हम उन विषयों को इतनी आसानी से नजरअंदाज कर जाते हैं, और ऐसी कौन सी बात है कि व्यंग्यकार उन्हीं में से सैंकड़ों प्रश्न हंसी हंसी में हमारे सामने खड़े कर जाता है। यह व्यंग्यकार की संवेदनशीलता ही है जो उसे समाज और अपने आसपास की विसंगतियों, खोखलेपन एवं पाखंड को व्यंग्यात्मक रूप में हम पाठकों के सामने लाने को प्रेरित करती है। भाषाशैली ऐसी कि पाठक किसी न किसी किरदार के रूप में उस व्यंग्य से कब जुड़ जाए, पता ही न चले। हो सकता है इसका मुख्य कारण यह हो कि वे प्रायः अपने व्यंग्यों में किसी और पर कटाक्ष न कर स्वयं को एक पात्र के रूप में पहले अपने आप उसे जीने के बाद अपने पाठक को भी मानों उसकी उंगली पकड़ अपनी उसी दुनिया में ले जाते हो, जिससे वह उसका पूरा आनंद भी ले और बाद में चिंतन करने को विवश भी हो जाए। कभी करुणा से तो कभी सहानुभूति से, व्यंग्यकार सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व मानवीय कुरीतियों से उपजने पाले दुःख एवं असंतोष से जब प्रेरणा लेता है तो उसी से व्यंग्य का जन्म होता है। व्यंग्यकार सामाजिक विसंगतियों को हंसते हुए उजागर करता है। और उनका किसी न किसी स्तर पर विरोध भी करता है। यह एक ऐसा सार्थक शाब्दिक शस्त्र है जो पूरी तरह से जिसके हाथ में एक बार आ जाए, उसके दिल और दिमाग के नई सोच के द्वार अपने आप खुलते जाते हैं। संभावना है व्यंग्य के माध्यम से दिल और दिमाग के द्वार भविष्य में भी ऐसे ही खुलते रहेंगे।
अशोक गौतम बीस व्यंग्य संग्रह अपने पाठकों को आनंद एवं चिंतन के लिए दे चुके हैं। अब वे अपने नए व्यंग्य संग्रह पांव दबा, पांव जमा के साथ पुनः हमारे सामने हैं। यह शीर्षक स्वतः ही सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है क्योंकि यह वर्तमान समय में हमारे जीवन का सफलता का मूल मंत्र सा हो गया है, कहीं न कहीं, कभी न कभी। चाहे जाने में हो या अनजाने में, बौद्धिकता के स्तर से लेकर सड़क स्तर तक कहीं न कहीं पांव दबाकर पांव जमाने का काम हो ही रहा है। विश्वास किया जा सकता है कि उनके अन्य व्यंग्य संग्रहों की भांति यह व्यंग्य संग्रह भी समाज एवं जीवन के कटु सत्यों से सामना करवा लोकचेतना को जागृत करने में सक्षम होगा। संग्रह के लिए व्यंग्यकार को अशेष शुभकामनाएं।
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