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Raste adhure nahi hote

By: Material type: TextTextPublication details: Dehradun, Samay sakshay 2017.Description: 144 pISBN:
  • 97881868106510
Subject(s): DDC classification:
  • UK 891.431 BHA
Summary: पहाड़ विविध रूपों में साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। साहित्य के इतर भी वे तत्ववेत्ताओं, पुरातत्ववेत्ताओं, भूगर्भवेत्ताओं व पर्यावरणविदों के विषय रहे हैं, प्रयोगशाला रहे हैं। राहुल सांकृत्यायन जैसे महाघुमक्कड़ों के लिए वे सभ्यताओं के विकासक्रम को तट में जाकर समझने की कोशिशें भी रहे हैं। पहाड़ों को आप सैलानी बनकर यायावरी दृष्टि से देख सकते हैं और इसमें रच- बसकर भी कोई रचनाकार जब प्रकृति से अभिन्न होकर, उसमें जीते हुए उसके दैनंदिन का हिस्सा होकर लिखता है तो उसकी रचनाओं में धूप-छाँव रंगत लिये हुए एक विस्तृत अनुभव- संसार व्यक्त होता है। वह वनस्पतियों व पहाड़ों पर पड़ रही चोटों-आघातों को अपनी आत्मा पर झेल रहा होता है और एक फल का लदना उसे सभारता देता है। ऐसे में पहाड़ निर्जीव पहाड़ न होकर धड़कते हुए संवादी पक्ष हो जाते हैं। दिवा भट्ट का नया कविता संग्रह' रास्ते अधूरे नहीं होते' प्रकृति और मनुष्य की इसी पारस्परिकता को रेखांकित करता है। यहाँ प्रकृति के अवसाद और उत्सव, वसंत और पतझड़ मनुष्य और इतर प्राणियों की संग-सोहबत में घटित होते हैं। दरअसल ये कविताएँ ऋतुओं, पेड़ों, नदियों, पशु-पक्षियों और जन समुदाय से मिलकर एक बड़ा संकुल बनाती हैं। पर अपनी संकुलता में भी ये सब सुरक्षित कहाँ हैं? बाजार की लालची निगाहें उन तक पहुँच गई हैं। तभी तो देवदार का पेड़, जिसके बारे में कहावत है- 'सौ साल खड़ा, सौ साल पड़ा, सौ साल गड़ा'। यानि दसियों पीढ़ियों को पालने वाला, कहता है- 'कल हम करेंगे / बिछेगा एक नया वन / कंक्रीट और लोहे का। ' इस जंगल में मोल होगा, माल होगा, धमाल होगा। देवदार ही नहीं बाँज, बुराँश, भीमल, खड़िक और अनेकानेक पेड़ हैं जो ईंधन, भवन निर्माण, पशुओं का चारा से लेकर औषधियाँ बनाने के काम में लाए जाते हैं। कह सकते हैं पेड़ों को बचाने का 'चिपको आंदोलन' केवल पेड़ बचाने की कवायद नहीं थी बल्कि आदमी बचाने की कवायद थी। उस आदमी को बचाने की कवायद थी जो हाड़-फोड़ मेहनत के बाद भी अन्न-वस्त्र के लिए तरसता है। एक सजग रचनाकार केवल पहाड़ों की नयनाभिरामता नहीं देखता वरन् उस समाज को भी देखता है जिसका भाग्य अपरिहार्य रूप से उससे जुड़ा है। और जिसके जीवनाधार तत्वों पर प्रहार किया जा रहा है। दिवा जी ने उस प्रहारक खंजर को देखा है और पहाड़ व उससे जुड़े समाज को उस संपृक्तदृष्टि से देखा है जिसे समाजशास्त्री व कवि पूरन सिंह जोशी 'बॉटम अप' दृष्टि कहते हैं। कविता में समाज की उपस्थिति ऐसे ही दर्ज की जा सकती है। कविता और समाज के संबंधों को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हुए वह कहते हैं कि प्रकृति के प्रति रोमानी दृष्टि के स्थान पर प्रकृति और मानव संबंधों के प्रति जनसंवेदी दृष्टि होनी चाहिए। संग्रह में टिहरी डैम को लेकर भी एक कविता है। यह बाँध भूगर्भ वैज्ञानिकों व राजनेताओं के बीच, बनाने के औचित्य को लेकर प्रारम्भ से ही विवाद का विषय रहा है। निर्माण के बाद आज भी इसकी उपादेयता को लेकर मत वैभिन्य है। कविता में यहाँ यह ' विकास के लिए आवश्यक बताकर रोकी गयी गति' है। वे इसे 'सीमित हितों के लिए 'कितने-कितने हितों का ' सर्वनाश मानती हैं जिनमें वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षियों व मनुष्यों की संस्कृति शामिल है। संग्रह में केवल पहाड़ के भौतिक दायरे में लिखी कविताएँ ही नहीं हैं वरन् उन चिंताओं और सरोकारों से संबंधित कविताएँ भी हैं जिनका भूगोल व्यापक मनुष्यता से संबंधित है। अफगान बालिकाओं के लिए लिखी कविता 'स्वप्न भ्रूण' एक ऐसी ही कविता है, अपने तुलनात्मक अंदाज में यह कविता यहाँ की लड़कियों व अफगान लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा, रहन-सहन व स्वप्न देखने की आजादी के बहाने एक बड़े वर्ग को संबोधित करती है जहाँ पुरुष वर्चस्वों व संहिताओं की दीर्घ जकड़न है। लोकतंत्र का क्षरण भी यहाँ चिंता का एक गंभीर विषय है। नैनीताल की नैनी झील में पाई गई अजनबी लाश का नाम लोकतंत्र है, और एफ.आई.आर. में अमेरिका का नाम या सद्दाम, लादेन, दाऊद का नाम नहीं होना लोकतंत्र पर हो रहे प्रत्यक्ष या परोक्ष हमलों व आंतकों की ओर संकेत करता है। भूमण्डलीयकरण के दौर में आर्थिक उपनिवेश बनते समाजों में दुष्परिणामों को फलस्वरूप छोटे तपके के लोगों की बदहाली देख प्रश्न उठते हैं बड़प्पन संवारती झोपड़पट्टियों कहाँ गई। दिवा भट्ट की गिनती भारत की उन शीर्षस्थ महिला साहित्यकारों में होती है जिनकी रचनाओं में पहाड़ सांस लेता है। इस संकलन में दिवा की 93 कविताएं संकलित हैं।
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पहाड़ विविध रूपों में साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। साहित्य के इतर भी वे तत्ववेत्ताओं, पुरातत्ववेत्ताओं, भूगर्भवेत्ताओं व पर्यावरणविदों के विषय रहे हैं, प्रयोगशाला रहे हैं। राहुल सांकृत्यायन जैसे महाघुमक्कड़ों के लिए वे सभ्यताओं के विकासक्रम को तट में जाकर समझने की कोशिशें भी रहे हैं। पहाड़ों को आप सैलानी बनकर यायावरी दृष्टि से देख सकते हैं और इसमें रच- बसकर भी कोई रचनाकार जब प्रकृति से अभिन्न होकर, उसमें जीते हुए उसके दैनंदिन का हिस्सा होकर लिखता है तो उसकी रचनाओं में धूप-छाँव रंगत लिये हुए एक विस्तृत अनुभव- संसार व्यक्त होता है। वह वनस्पतियों व पहाड़ों पर पड़ रही चोटों-आघातों को अपनी आत्मा पर झेल रहा होता है और एक फल का लदना उसे सभारता देता है। ऐसे में पहाड़ निर्जीव पहाड़ न होकर धड़कते हुए संवादी पक्ष हो जाते हैं। दिवा भट्ट का नया कविता संग्रह' रास्ते अधूरे नहीं होते' प्रकृति और मनुष्य की इसी पारस्परिकता को रेखांकित करता है। यहाँ प्रकृति के अवसाद और उत्सव, वसंत और पतझड़ मनुष्य और

इतर प्राणियों की संग-सोहबत में घटित होते हैं। दरअसल ये कविताएँ ऋतुओं, पेड़ों, नदियों, पशु-पक्षियों और जन समुदाय से मिलकर एक बड़ा संकुल बनाती हैं। पर अपनी संकुलता में भी ये सब सुरक्षित कहाँ हैं? बाजार की लालची निगाहें उन तक पहुँच गई हैं। तभी तो देवदार का पेड़, जिसके बारे में कहावत है- 'सौ साल खड़ा, सौ साल पड़ा, सौ साल गड़ा'। यानि दसियों पीढ़ियों को पालने वाला, कहता है- 'कल हम करेंगे / बिछेगा एक नया वन / कंक्रीट और लोहे का। ' इस जंगल में मोल होगा, माल होगा, धमाल होगा। देवदार ही नहीं बाँज, बुराँश, भीमल, खड़िक और अनेकानेक पेड़ हैं जो ईंधन, भवन निर्माण, पशुओं का चारा से लेकर औषधियाँ बनाने के काम में लाए जाते हैं। कह सकते हैं पेड़ों को बचाने का 'चिपको आंदोलन' केवल पेड़ बचाने की कवायद नहीं थी बल्कि आदमी बचाने की कवायद थी। उस आदमी को बचाने की कवायद थी जो हाड़-फोड़ मेहनत के बाद भी अन्न-वस्त्र के लिए तरसता है। एक सजग रचनाकार केवल पहाड़ों की नयनाभिरामता नहीं देखता वरन् उस समाज को भी देखता है जिसका भाग्य अपरिहार्य रूप से उससे जुड़ा है। और जिसके जीवनाधार तत्वों पर प्रहार किया जा रहा है। दिवा जी ने उस प्रहारक खंजर को देखा है और पहाड़ व उससे जुड़े समाज को उस संपृक्तदृष्टि से देखा है जिसे समाजशास्त्री व कवि पूरन सिंह जोशी 'बॉटम अप' दृष्टि कहते हैं। कविता में समाज की उपस्थिति ऐसे ही दर्ज की जा सकती है। कविता और समाज के संबंधों को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हुए वह कहते हैं कि प्रकृति के प्रति रोमानी दृष्टि के स्थान पर प्रकृति और मानव संबंधों के प्रति जनसंवेदी दृष्टि होनी चाहिए।

संग्रह में टिहरी डैम को लेकर भी एक कविता है। यह बाँध भूगर्भ वैज्ञानिकों व राजनेताओं के बीच, बनाने के औचित्य को लेकर प्रारम्भ से ही विवाद का विषय रहा है। निर्माण के बाद आज भी इसकी उपादेयता को लेकर मत वैभिन्य है। कविता में यहाँ यह ' विकास के लिए आवश्यक बताकर रोकी गयी गति' है। वे इसे 'सीमित हितों के लिए 'कितने-कितने हितों का ' सर्वनाश मानती हैं जिनमें वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षियों व मनुष्यों की संस्कृति शामिल है। संग्रह में केवल पहाड़ के भौतिक दायरे में लिखी कविताएँ ही नहीं हैं वरन् उन चिंताओं और सरोकारों से संबंधित कविताएँ भी हैं जिनका भूगोल व्यापक मनुष्यता से संबंधित है। अफगान बालिकाओं के लिए लिखी कविता 'स्वप्न भ्रूण' एक ऐसी ही कविता है, अपने तुलनात्मक अंदाज में यह कविता यहाँ की लड़कियों व अफगान लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा, रहन-सहन व स्वप्न देखने की आजादी के बहाने एक बड़े वर्ग को संबोधित करती है जहाँ पुरुष वर्चस्वों व संहिताओं की दीर्घ जकड़न है।
लोकतंत्र का क्षरण भी यहाँ चिंता का एक गंभीर विषय है। नैनीताल की नैनी झील में पाई गई अजनबी लाश का नाम लोकतंत्र है, और एफ.आई.आर. में अमेरिका का नाम या सद्दाम, लादेन, दाऊद का नाम नहीं होना लोकतंत्र पर हो रहे प्रत्यक्ष या परोक्ष हमलों व आंतकों की ओर संकेत करता है। भूमण्डलीयकरण के दौर में आर्थिक उपनिवेश बनते समाजों में दुष्परिणामों को फलस्वरूप छोटे तपके के लोगों की बदहाली देख प्रश्न उठते हैं बड़प्पन संवारती झोपड़पट्टियों कहाँ गई। दिवा भट्ट की गिनती भारत की उन शीर्षस्थ महिला साहित्यकारों में होती है जिनकी रचनाओं में पहाड़ सांस लेता है। इस संकलन में दिवा की 93 कविताएं संकलित हैं।

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