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Santal : paramparayen evam sansthan

By: Contributor(s): Material type: TextTextPublication details: New Delhi Rajkamal 2024Description: 231pISBN:
  • 9789360865870
Subject(s): DDC classification:
  • H 305.56 BOD
Summary: सन्ताल : परम्पराएँ एवं संस्थान’ आदिवासी अध्ययन और मानवविज्ञान विषयक मानक पुस्तकों में शुमार है। मिशनरी-विद्वान पी.ओ. बोडिंग की इस कृति को भारतीय आदिवासी समाज और संस्कृति, विशेषकर सन्ताल सम्बन्धी अध्ययन में एक अनिवार्य पाठ माना जाता है। भारत में नॉर्वेजियन सन्ताल मिशन के संस्थापक रेवरेंड एल.ओ. स्क्रेफ्स्रड (1840-1910) ने 1887 में सन्तालों के लिए एक मार्गदर्शिका प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था, 'होरकारेन मारे हापराम्को रेक कथा’ (Horkaren Mare Hapramko reak Katha)। सन्ताल समाज में प्रचलित तमाम मान्यताओं, परम्पराओं और संस्थानों के बारे में जानकारी देने वाली इस पुस्तक को, इस समाज के कुछ प्रतिष्ठित सदस्यों के अनुरोध पर बोडिंग ने 1916 और 1929 में पुनः सम्पादित किया। इस क्रम में बोडिंग ने कुछ नई सामग्री भी जोड़ी। लेकिन उनके जीवित रहते यह अनुवाद प्रकाशित नहीं हो सका और पांडुलिपि प्रो.ओ. सोलबर्ग के पास सुरक्षित रही। अन्ततः स्टेन नो द्वारा सम्पादित किए जाने के बाद इसका प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में जन्म से लेकर मृत्यु तक सन्ताल जीवन के हरेक संस्कार, आचार, व्यवहार, विश्वास, विधान, संस्थान आदि का प्रामाणिक ब्योरा दिया गया है। इसमें सन्ताल जीवन और संस्कृति से लेखक का गहरा लगाव स्पष्ट है जिसके बिना ऐसा मूलगामी अध्ययन और दस्तावेजीकरण सम्भव नहीं हो सकता था। सन्ताली विरासत को समग्रता में जानने-समझने के इच्छुक हरेक व्यक्ति के लिए, एक पठनीय ग्रन्थ है।
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Books Books Gandhi Smriti Library H 305.56 BOD (Browse shelf(Opens below)) Available 180350
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सन्ताल : परम्पराएँ एवं संस्थान’ आदिवासी अध्ययन और मानवविज्ञान विषयक मानक पुस्तकों में शुमार है। मिशनरी-विद्वान पी.ओ. बोडिंग की इस कृति को भारतीय आदिवासी समाज और संस्कृति, विशेषकर सन्ताल सम्बन्धी अध्ययन में एक अनिवार्य पाठ माना जाता है। भारत में नॉर्वेजियन सन्ताल मिशन के संस्थापक रेवरेंड एल.ओ. स्क्रेफ्स्रड (1840-1910) ने 1887 में सन्तालों के लिए एक मार्गदर्शिका प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था, 'होरकारेन मारे हापराम्को रेक कथा’ (Horkaren Mare Hapramko reak Katha)। सन्ताल समाज में प्रचलित तमाम मान्यताओं, परम्पराओं और संस्थानों के बारे में जानकारी देने वाली इस पुस्तक को, इस समाज के कुछ प्रतिष्ठित सदस्यों के अनुरोध पर बोडिंग ने 1916 और 1929 में पुनः सम्पादित किया। इस क्रम में बोडिंग ने कुछ नई सामग्री भी जोड़ी। लेकिन उनके जीवित रहते यह अनुवाद प्रकाशित नहीं हो सका और पांडुलिपि प्रो.ओ. सोलबर्ग के पास सुरक्षित रही। अन्ततः स्टेन नो द्वारा सम्पादित किए जाने के बाद इसका प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में जन्म से लेकर मृत्यु तक सन्ताल जीवन के हरेक संस्कार, आचार, व्यवहार, विश्वास, विधान, संस्थान आदि का प्रामाणिक ब्योरा दिया गया है। इसमें सन्ताल जीवन और संस्कृति से लेखक का गहरा लगाव स्पष्ट है जिसके बिना ऐसा मूलगामी अध्ययन और दस्तावेजीकरण सम्भव नहीं हो सकता था। सन्ताली विरासत को समग्रता में जानने-समझने के इच्छुक हरेक व्यक्ति के लिए, एक पठनीय ग्रन्थ है।

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