Akath Kahani
Material type:
- 9789355181886
- H 920 MAN
Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Gandhi Smriti Library | H 920 MAN (Browse shelf(Opens below)) | Available | 180165 |
महान से महान विचार और व्यक्ति के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए भी मैं उनके विचारों का रूढ़ वाहक नहीं बन सका। बुद्ध, मार्क्स, कबीर मेरे प्रिय रहे हैं, आज भी हैं। लेकिन उनकी बातों को, उनके विचारों को, मैं अपने विवेक की रोशनी में खँगाल कर ही स्वीकारता हूँ। उनकी तमाम बातें आज के ज़माने में ठीक ही हों, यह ज़रूरी नहीं है। बुद्ध के समय का समाज आज नहीं है, मार्क्स के समय का अर्थशास्त्र आज नहीं है। उसमें परिवर्तन आये हैं। अनेक चिन्तक-विश्लेषक इस बीच हुए। सबको लेते हुए ही हम उनके विचारों को देखेंगे, फिर आज की समस्याओं के बीच उनकी प्रासंगिकता तलाश करेंगे। लेकिन कुछ लोग सनातनी मिज़ाज के होते हैं- सनातनी बौद्ध, सनातनी कबीरपन्थी या सनातनी मार्क्सवादी। ऐसे लोगों से मेरा रास्ता अलग हो जाता है। मैं किसी रूढ़ रास्ते पर नहीं चल सका। अनेक लोग इसे मेरा भटकाव मानते हैं। लेखक-चिन्तक प्रेमकुमार मणि की यह आत्मकथा उत्तर भारतीय किसान परिवार में जन्मे-पले-बढ़े एक व्यक्ति के विकास की दिलचस्प-दास्तान तो है ही, आज़ादी के बाद इस क्षेत्र में आये बदलावों का विश्वसनीय दस्तावेज़ भी है। मणि कथाकार- उपन्यासकार के साथ प्रतिबद्ध सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे हैं, जिनके विचारों ने अनेक बार विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं और आन्दोलनों को दिशा दी है। आत्मकथा में मणि कथावाचक भर बने रहते हैं। इस तटस्थता के कारण यह उनकी से अधिक, उनके समय की कहानी बन जाती है। 1960 के दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक के लगभग 50 साल लम्बे काल-खण्ड की एक ऐसी कहानी, जो राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल से भरी है और जिसमें इस दौर के साहित्यिक जगत की हलचलें भी उझकती हैं। इन वर्णनों में जीवन व जगत के प्रति मणि के नज़रिये में प्रौढ़ता और आत्मीयता का सहज समावेश है। उन्होंने नेहरू युग के पश्चात् हिन्दी-समाज में आये बदलावों को गहराई से अनुभव किया है और अपनी भरपूर ज्ञानात्मक संवेदना के साथ साझा किया है। यहाँ जयप्रकाश आन्दोलन है, तो नक्सलवादी आन्दोलन भी; मण्डलवादी उथल-पुथल है, तो भगवा अंगड़ाई भी। यह केवल मणि की कहानी नहीं, उस पूरे दौर का एक जीवन्त और सम्यक दस्तावेज़ है, जिसके सामाजिक पहलू अलग से रेखांकित किये जाने योग्य हैं। उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक-जगत के इतिहास को समझने के लिए यह एक ज़रूरी किताब है। वस्तुतः यह केवल आत्मकथा नहीं, बल्कि उससे कुछ अधिक है।
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