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Apradhshastra v.2000

By: Material type: TextTextPublication details: Delhi; Vivek Prakashan; 2000Edition: 8thDescription: 656pISBN:
  • 8170042143
DDC classification:
  • H 364 BAG 8th ed.
Summary: लोकप्रियता की ऊँचाइयों को पार करते हुए पुस्तक अपने जीवन के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में प्रवेश कर गई है। केवल समाजशास्त्र के पाठकों द्वारा ही नहीं, अपितु अपराधशास्त्र, विधि, न्याय, पुलिस, जेल और प्रशासन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी न केवल पुस्तक को सराहा गया है, अपितु अंगीकार किया गया है। इन विविध क्षेत्रों के विद्वान अध्येयताओं के प्रति साधुवाद व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। यह मेरी सफलता न होकर आपके स्नेह, प्रोत्साहन और निर्देश का परिणाम है। अतः अनुरोध है कि पूर्व की भांति ही अपने अमूल्य सुझावों से मुझे उत्साहित करते रहें, ताकि अपराधशास्त्र का तरोताजा संस्करण आपको उपलब्ध कराता रहूँ। विगत वर्षों में समाज में अपराधीकरण की जो प्रवृत्ति विकसित हुई है, वह निश्चय ही चिन्ता का विषय है। किन्तु इससे भागना या घबराना समस्या का समाधान नहीं है। अनेकों बार इस धारणा को दोहराया गया है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते, अपितु बनते हैं। यह समाज ही अपराधी परिस्थितियां पैदा करता है, जिसमें व्यक्ति के लिए अपराध श्री भूमिका अंगीकार करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में अपराधशास्त्र का ज्ञान ही वह आधार है जो अपराधविहीन समाज की परिकल्पना के पथ का प्रदर्शन कर सकता है। नई शताब्दी की चौखट पर खड़ी यह पुस्तक पुराने संस्करण का मात्र संशोधित संस्करण नहीं है, अपितु नए कलेवर में उसका रूपान्तरण है, जो पुस्तक के प्रथम पृष्ठ से लेकर आखिरी पृष्ठ तक देखा जा सकता है। पुस्तक की सामग्री को वर्तमान परिवेश की आवश्यकताओं के साथ ही खण्डवार विभाजन किया गया है, ताकि अपराधशास्त्र जैसे ज्ञान का क्रमबद्ध अध्ययन किया जा सके। सभी अध्यायों को अद्यतन आंकड़ों द्वारा सुसज्जित किया गया है। साथ ही, आज के प्रगतिशील युग में जिन सामाजिक समस्याओं ने हमारे देश में विकराल रूप धारण कर लिया है उन पर नये अध्याय लिखे गये हैं।
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Books Books Gandhi Smriti Library H 364 BAG 8th ed. (Browse shelf(Opens below)) Available 66985
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लोकप्रियता की ऊँचाइयों को पार करते हुए पुस्तक अपने जीवन के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में प्रवेश कर गई है। केवल समाजशास्त्र के पाठकों द्वारा ही नहीं, अपितु अपराधशास्त्र, विधि, न्याय, पुलिस, जेल और प्रशासन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी न केवल पुस्तक को सराहा गया है, अपितु अंगीकार किया गया है। इन विविध क्षेत्रों के विद्वान अध्येयताओं के प्रति साधुवाद व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। यह मेरी सफलता न होकर आपके स्नेह, प्रोत्साहन और निर्देश का परिणाम है। अतः अनुरोध है कि पूर्व की भांति ही अपने अमूल्य सुझावों से मुझे उत्साहित करते रहें, ताकि अपराधशास्त्र का तरोताजा संस्करण आपको उपलब्ध कराता रहूँ।

विगत वर्षों में समाज में अपराधीकरण की जो प्रवृत्ति विकसित हुई है, वह निश्चय ही चिन्ता का विषय है। किन्तु इससे भागना या घबराना समस्या का समाधान नहीं है। अनेकों बार इस धारणा को दोहराया गया है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते, अपितु बनते हैं। यह समाज ही अपराधी परिस्थितियां पैदा करता है, जिसमें व्यक्ति के लिए अपराध श्री भूमिका अंगीकार करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में अपराधशास्त्र का ज्ञान ही वह आधार है जो अपराधविहीन समाज की परिकल्पना के पथ का प्रदर्शन कर सकता है।

नई शताब्दी की चौखट पर खड़ी यह पुस्तक पुराने संस्करण का मात्र संशोधित संस्करण नहीं है, अपितु नए कलेवर में उसका रूपान्तरण है, जो पुस्तक के प्रथम पृष्ठ से लेकर आखिरी पृष्ठ तक देखा जा सकता है। पुस्तक की सामग्री को वर्तमान परिवेश की आवश्यकताओं के साथ ही खण्डवार विभाजन किया गया है, ताकि अपराधशास्त्र जैसे ज्ञान का क्रमबद्ध अध्ययन किया जा सके। सभी अध्यायों को अद्यतन आंकड़ों द्वारा सुसज्जित किया गया है। साथ ही, आज के प्रगतिशील युग में जिन सामाजिक समस्याओं ने हमारे देश में विकराल रूप धारण कर लिया है उन पर नये अध्याय लिखे गये हैं।

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