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Utpiditon ka shikshashastra / tr.by Ramesh Updhyaye v.1997

By: Material type: TextTextPublication details: Delhi; Grantha Shilpi; 1997Description: 144pISBN:
  • 8186684247
DDC classification:
  • H 370 FRE
Summary: यह पुस्तक उस परंपरागत अर्थ में शिक्षाशास्त्र का विवेचन नहीं हैं, जिस अर्थ में बी.एड. और एम.एड. की पाठ्य पुस्तकों में हमें देखने को मिलता है। इसमें विवेचित शिक्षाशास्त्र का आधार काफी व्यापक है। पिछले ढाई दशकों के दौरान ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के चिंतन को प्रभावित करने वाली विश्व की यह एक अनोखी पुस्तक है। शिक्षाशास्त्र और शिक्षाकर्मियों की सोच को प्रभावित करने के साथ ही, समकालीन दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, विज्ञान, साहित्य, अनुसंधान की विभिन्न शाखाओं तथा आलोचना आदि क्षेत्रों में कार्यरत लोगों की सोच में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। जिस समाज में प्रभुत्वशाली अभिजनों का अल्पतंत्र बहुसंख्यक जनता पर शासन करता है, वह अन्यायपूर्ण और उत्पीड़नकारी समाज होता है। ऐसी समाजव्यवस्था मनुष्यों को वस्तुओं में बदल कर उनको अमानुषिक बनाती है जबकि मनुष्य का अस्तित्वमूलक और ऐतिहासिक कर्तव्य पूर्णतर मनुष्य बनना है। उत्पीड़ितों की मुक्ति सामाजिक रूपांतरण से ही संभव है और इसमें सही शिक्षा की क्रांतिकारी भूमिका होती है। लेखक के लिए शिक्षा महज ज्ञान का लेनदेन नहीं है, इसके विपरीत वह ऐतिहासक रूप से जरूरी राजनीतिक गतिविधि और क्रांतिकारी सांस्कृतिक कर्म है। शिक्षित होने का मतलब उत्पीड़नकारी व्यवस्था में ही अपनी एक जगह बना लेना नहीं है, बल्कि पूर्णतर मनुष्य बनना है और पूर्णतर मनुष्य तभी बना जा सकता है जब अमानुषिक बनाने वाले यथार्थ को बदला जाए। मुक्तिदाई शिक्षा के जरिए सामाजिक रूपांतरण में लगे लोगों के लिए यह पुस्तक प्रेरक, उपयोगी और जरूरी पठन सामग्री उपलब्ध कराती है। विश्व की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। फ्रेश की इस पुस्तक का समय हिंदी अनुवाद पहली चार पाठकों को पढ़ने को मिलेगा।
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यह पुस्तक उस परंपरागत अर्थ में शिक्षाशास्त्र का विवेचन नहीं हैं, जिस अर्थ में बी.एड. और एम.एड. की पाठ्य पुस्तकों में हमें देखने को मिलता है। इसमें विवेचित शिक्षाशास्त्र का आधार काफी व्यापक है।

पिछले ढाई दशकों के दौरान ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के चिंतन को प्रभावित करने वाली विश्व की यह एक अनोखी पुस्तक है। शिक्षाशास्त्र और शिक्षाकर्मियों की सोच को प्रभावित करने के साथ ही, समकालीन दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, विज्ञान, साहित्य, अनुसंधान की विभिन्न शाखाओं तथा आलोचना आदि क्षेत्रों में कार्यरत लोगों की सोच में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है।

जिस समाज में प्रभुत्वशाली अभिजनों का अल्पतंत्र बहुसंख्यक जनता पर शासन करता है, वह अन्यायपूर्ण और उत्पीड़नकारी समाज होता है। ऐसी समाजव्यवस्था मनुष्यों को वस्तुओं में बदल कर उनको अमानुषिक बनाती है जबकि मनुष्य का अस्तित्वमूलक और ऐतिहासिक कर्तव्य पूर्णतर मनुष्य बनना है।

उत्पीड़ितों की मुक्ति सामाजिक रूपांतरण से ही संभव है और इसमें सही शिक्षा की क्रांतिकारी भूमिका होती है। लेखक के लिए शिक्षा महज ज्ञान का लेनदेन नहीं है, इसके विपरीत वह ऐतिहासक रूप से जरूरी राजनीतिक गतिविधि और क्रांतिकारी सांस्कृतिक कर्म है। शिक्षित होने का मतलब उत्पीड़नकारी व्यवस्था में ही अपनी एक जगह बना लेना नहीं है, बल्कि पूर्णतर मनुष्य बनना है और पूर्णतर मनुष्य तभी बना जा सकता है जब अमानुषिक बनाने वाले यथार्थ को बदला जाए।

मुक्तिदाई शिक्षा के जरिए सामाजिक रूपांतरण में लगे लोगों के लिए यह पुस्तक प्रेरक, उपयोगी और जरूरी पठन सामग्री उपलब्ध कराती है। विश्व की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। फ्रेश की इस पुस्तक का समय हिंदी अनुवाद पहली चार पाठकों को पढ़ने को मिलेगा।

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