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Sanskritik samarajyavad aur shiksha / tr. by Krishanakant Mishra c.1

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi; Granth Shilpi; 1997Description: 336pISBN:
  • 8186684239
DDC classification:
  • H 370 KOR
Summary: भारत के अधिकांश बुद्धिजीवी पश्चिम द्वारा प्रचारित इस मिथक का शिकार हैं कि अंग्रेजी शिक्षा भारतीय जनता के लिए मुक्तिदायी थी। इसी शिक्षा के कारण आधुनिक ज्ञानविज्ञान से उसका परिचय हुआ और मध्यकालीन सामंतीय बोध की जकड़ से वह बाहर निकला लेकिन तथ्य इस बात को प्रमाणित नहीं करते । प्रस्तुत पुस्तक में प्रसिद्ध अमरीकी मार्क्सवादी शिक्षाशास्त्री मार्टिन कारनॉय ने तथ्यों का विश्लेषण करके इस मिथक को तोड़ा है। उनका कहना है कि बिना सांस्कृतिक आधार के कोई भी राजनीतिक व्यवस्था किसी समाज में अधिक दिनों तक टिक नहीं सकती इसलिए ब्रिटिश साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने के लिए भारत जैसे उपनिवेशित समाज में अंग्रेजी शिक्षा के जरिए यह काम पूरा किया गया। नई शिक्षाव्यवस्था भारत में, और अन्य उपनिवेशित देशों में भी साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक ढांचा तैयार करने का सशक्त माध्यम बनी थी। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए कारनॉय ने भारत, पश्चिमी अफ्रिका और लैटिन अमरीका के कुछ देशों के उदाहरण दिए हैं। उनका मानना है कि इस शिक्षाव्यवस्था में ज्ञान भी उपनिवेशित था। उसका आयोजन उपनिवेश की जरूरतों के मुताबिक किया गया था। उपनिवेशित ज्ञान ने वर्ण और जाति पर आधारित भारतीय समाज में असमानता वाले सोपानात्मक सामाजिक ढांचे को न सिर्फ जारी रखने में मदद की बल्कि ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने में भी इसका बहुत बड़ा हाथ था। इस शिक्षा ने आम भारतीय के मन में अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति हीन भावना को जन्म दिया जिसकी जकड़ से आज भी हम मुक्त नहीं हो सके हैं। आम शिक्षित भारतीय की मानसिकता आज भी उपनिवेशित है। शिक्षा के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले छात्रों तथा अध्यापकों को तो यह पुस्तक नई दृष्टि देती ही है, आम पाठक को भी अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति जागरूक होने के लिए प्रेरित करती है।
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भारत के अधिकांश बुद्धिजीवी पश्चिम द्वारा प्रचारित इस मिथक का शिकार हैं कि अंग्रेजी शिक्षा भारतीय जनता के लिए मुक्तिदायी थी। इसी शिक्षा के कारण आधुनिक ज्ञानविज्ञान से उसका परिचय हुआ और मध्यकालीन सामंतीय बोध की जकड़ से वह बाहर निकला लेकिन तथ्य इस बात को प्रमाणित नहीं करते ।

प्रस्तुत पुस्तक में प्रसिद्ध अमरीकी मार्क्सवादी शिक्षाशास्त्री मार्टिन कारनॉय ने तथ्यों का विश्लेषण करके इस मिथक को तोड़ा है। उनका कहना है कि बिना सांस्कृतिक आधार के कोई भी राजनीतिक व्यवस्था किसी समाज में अधिक दिनों तक टिक नहीं सकती इसलिए ब्रिटिश साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने के लिए भारत जैसे उपनिवेशित समाज में अंग्रेजी शिक्षा के जरिए यह काम पूरा किया गया। नई शिक्षाव्यवस्था भारत में, और अन्य उपनिवेशित देशों में भी साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक ढांचा तैयार करने का सशक्त माध्यम बनी थी।

अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए कारनॉय ने भारत, पश्चिमी अफ्रिका और लैटिन अमरीका के कुछ देशों के उदाहरण दिए हैं। उनका मानना है कि इस शिक्षाव्यवस्था में ज्ञान भी उपनिवेशित था। उसका आयोजन उपनिवेश की जरूरतों के मुताबिक किया गया था।

उपनिवेशित ज्ञान ने वर्ण और जाति पर आधारित भारतीय समाज में असमानता वाले सोपानात्मक सामाजिक ढांचे को न सिर्फ जारी रखने में मदद की बल्कि ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने में भी इसका बहुत बड़ा हाथ था। इस शिक्षा ने आम भारतीय के मन में अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति हीन भावना को जन्म दिया जिसकी जकड़ से आज भी हम मुक्त नहीं हो सके हैं। आम शिक्षित भारतीय की मानसिकता आज भी उपनिवेशित है।

शिक्षा के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले छात्रों तथा अध्यापकों को तो यह पुस्तक नई दृष्टि देती ही है, आम पाठक को भी अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति जागरूक होने के लिए प्रेरित करती है।

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