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Shiksha ki darshanik prashtabhoomi v.1990

By: Material type: TextTextPublication details: Jaipur; Rajasthan Hindi Grantha Akademi; 1990Edition: 3rdDescription: 315pDDC classification:
  • H 370.1 OOD 3rd ed.
Summary: शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के बी. ए. तथा एम. एड्. पाठ्यक्रमों में शिक्षा दर्शन एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। बी. एड्. स्तर पर इसका स्वरूप शिक्षा-सिद्धान्तों तक सीमित रहता है, परन्तु एम. एड्. स्तर पर विभिन्न दार्शनिक सम्प्र दायों का विवेचन गहनता के साथ किया जाता है। प्रभी तक भारतीय विश्वविद्यालयों के एम. एड्. स्तरीय पाठ्यक्रमों में मूल पाश्चात्य दर्शनों का प्रावधान रहा है, जिसका अध्ययन कुछ क्लॉसिकल पुस्तकों से किया जाता रहा है। इस प्रकार के लेखकों में रस्क विलड्यूरेंट, बेकर, डिवी, नन, बटलर प्रादि की पुस्तकें प्रचुरता से प्रयुक्त होती रही हैं। विगत कुछ वर्षों से एम. एड्. स्तर पर हिन्दी माध्यम का प्रयोग प्रारम्भ हुधा है। शिक्षा दर्शन पर हिन्दी में उच्चस्तरीय पुस्तकें अत्यन्त न्यूनतम संख्या में उपलब्ध हैं। जो धनुवाद हुए हैं, उनकी भाषा इतनी जटिल है कि उनका प्रचार सीमित हो गया है। कुछ विश्वविद्यालयों ने पाश्चात्य दर्शनों के मलावा भारतीय दर्शनों को भी एम. एड्. पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया है। शिक्षा की दृष्टि से भारतीय दर्शनों का विशाद विवेचन करने वाली एक भी पुस्तक उपलब्ध नहीं है। छात्रगण या तो भारतीय दर्शन की पुस्तकें पढ़कर सन्तोष कर लेते हैं, घथवा प्राचीन भारतीय शिक्षा का इतिहास पढ़कर उसे भारतीय शिक्षा दर्शन मान लेने की भ्रान्ति में पड़ते हैं । यत्किचित प्रयत्न इस दिशा में हुए हैं, उनमें अभी तक वेदान्त, उपनिषद् तथा भगवद्गीता में निहित शैक्षिक तत्त्वों की व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। माधुनिक भारतीय चिन्तकों पर भी इन दिनों धनेक पुस्तकें प्रकाशन में धाई हैं। कुछ लेखकों ने भारतीय दार्शनिक चिन्तन को प्रकृतिवाद, प्रादर्शवाद, व्यवहारवाद मादि पाश्चात्य वर्गीकरण के साथ मिला देने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत पुस्तक में मूल पाश्चात्य दर्शनों के प्रतिरिक्त बहुचर्चित प्रस्तित्ववाद, (जो शिक्षा दर्शन की दृष्टि से उपेक्षित रहा है) का भी समावेश किया गया है। इसके पश्चात् उपनिषद्, भगवद्गीता, जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, न्याय, वेदान्त, सर्वोदय, नव्य वेदान्त, विश्वात्मबोध प्रादि प्राचीन तथा धर्वाचीन भारतीय दर्शनों का शैक्षिक अभि प्रतार्थ के सन्दर्भ में सविस्तार विवेचन किया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में इस दृष्टि से यह अभिनव प्रयास है तथा यह एक बड़ी कमी की पूर्ति करता है। राजनैतिक तथा भाषिक चिन्तन भी दर्शन के ही मंग हैं, और इस दृष्टि से उनका भी समावेश इस पुस्तक में किया गया है। शिक्षा के विभिन्न पक्षों का विवेचन दर्शन- विशेष के विवेचन में ही यथास्थान किया गया है, धतः शैक्षिक उद्देश्य, अनुशासन, शिक्षण विधियाँ मादि पर पृथक-पृथक अध्याय नहीं लिखे गए, परन्तु "पाठ्यक्रम" को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख शास्त्र पर भी हैं, जो प्रस्तुत पुस्तक के विवेचन-क्षेत्र में नहीं भाते थे। वे शास्त्र है - मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र । पाठ्यक्रम ऐसा विषय है, जिसका विवेचन छोड़ना समीचीन नहीं लगा, भतः दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टियों से पाठ्यक्रम का विवेचन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है।
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शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के बी. ए. तथा एम. एड्. पाठ्यक्रमों में शिक्षा दर्शन एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। बी. एड्. स्तर पर इसका स्वरूप शिक्षा-सिद्धान्तों तक सीमित रहता है, परन्तु एम. एड्. स्तर पर विभिन्न दार्शनिक सम्प्र दायों का विवेचन गहनता के साथ किया जाता है। प्रभी तक भारतीय विश्वविद्यालयों के एम. एड्. स्तरीय पाठ्यक्रमों में मूल पाश्चात्य दर्शनों का प्रावधान रहा है, जिसका अध्ययन कुछ क्लॉसिकल पुस्तकों से किया जाता रहा है। इस प्रकार के लेखकों में रस्क विलड्यूरेंट, बेकर, डिवी, नन, बटलर प्रादि की पुस्तकें प्रचुरता से प्रयुक्त होती रही हैं। विगत कुछ वर्षों से एम. एड्. स्तर पर हिन्दी माध्यम का प्रयोग प्रारम्भ हुधा है। शिक्षा दर्शन पर हिन्दी में उच्चस्तरीय पुस्तकें अत्यन्त न्यूनतम संख्या में उपलब्ध हैं। जो धनुवाद हुए हैं, उनकी भाषा इतनी जटिल है कि उनका प्रचार सीमित हो गया है।

कुछ विश्वविद्यालयों ने पाश्चात्य दर्शनों के मलावा भारतीय दर्शनों को भी एम. एड्. पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया है। शिक्षा की दृष्टि से भारतीय दर्शनों का विशाद विवेचन करने वाली एक भी पुस्तक उपलब्ध नहीं है। छात्रगण या तो भारतीय दर्शन की पुस्तकें पढ़कर सन्तोष कर लेते हैं, घथवा प्राचीन भारतीय शिक्षा का इतिहास पढ़कर उसे भारतीय शिक्षा दर्शन मान लेने की भ्रान्ति में पड़ते हैं । यत्किचित प्रयत्न इस दिशा में हुए हैं, उनमें अभी तक वेदान्त, उपनिषद् तथा भगवद्गीता में निहित शैक्षिक तत्त्वों की व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। माधुनिक भारतीय चिन्तकों पर भी इन दिनों धनेक पुस्तकें प्रकाशन में धाई हैं। कुछ लेखकों ने भारतीय दार्शनिक चिन्तन को प्रकृतिवाद, प्रादर्शवाद, व्यवहारवाद मादि पाश्चात्य वर्गीकरण के साथ मिला देने का प्रयत्न किया है।

प्रस्तुत पुस्तक में मूल पाश्चात्य दर्शनों के प्रतिरिक्त बहुचर्चित प्रस्तित्ववाद, (जो शिक्षा दर्शन की दृष्टि से उपेक्षित रहा है) का भी समावेश किया गया है। इसके पश्चात् उपनिषद्, भगवद्गीता, जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, न्याय, वेदान्त, सर्वोदय, नव्य वेदान्त, विश्वात्मबोध प्रादि प्राचीन तथा धर्वाचीन भारतीय दर्शनों का शैक्षिक अभि प्रतार्थ के सन्दर्भ में सविस्तार विवेचन किया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में इस दृष्टि से यह अभिनव प्रयास है तथा यह एक बड़ी कमी की पूर्ति करता है।

राजनैतिक तथा भाषिक चिन्तन भी दर्शन के ही मंग हैं, और इस दृष्टि से उनका भी समावेश इस पुस्तक में किया गया है। शिक्षा के विभिन्न पक्षों का विवेचन दर्शन- विशेष के विवेचन में ही यथास्थान किया गया है, धतः शैक्षिक उद्देश्य, अनुशासन, शिक्षण विधियाँ मादि पर पृथक-पृथक अध्याय नहीं लिखे गए, परन्तु "पाठ्यक्रम" को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख शास्त्र पर भी हैं, जो प्रस्तुत पुस्तक के विवेचन-क्षेत्र में नहीं भाते थे। वे शास्त्र है - मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र । पाठ्यक्रम ऐसा विषय है, जिसका विवेचन छोड़ना समीचीन नहीं लगा, भतः दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टियों से पाठ्यक्रम का विवेचन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है।

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