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Hindustani silent cinema

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi Vani 2025Description: 344pISBN:
  • 9789369440078
Subject(s): DDC classification:
  • H 791.43054 OJH
Summary: भारतीय मूक सिनेमा पर केन्द्रित यह एक ऐसी प्रामाणिक किताब है, जिसमें फ़्रांस से सिनेमा के हिन्दुस्तान में प्रथम आगमन से लेकर, पहले दिन से सिनेमा के एक व्यवसाय के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने की पूरी कहानी है। जब सिनेमा ने हिन्दुस्तान में अपना क़दम रखा तो फ़िल्म निर्माण के लिए हिन्दुस्तानी संस्कृति और समाज तैयार नहीं था। फ़िल्म में स्त्री क़िरदार निभाने के लिए कोई भारतीय महिला राज़ी नहीं थी। कोई माँ अपने बच्चे को फ़िल्मी पर्दे पर मरते हुए नहीं देख सकती थी। सिनेमा सीखने का कोई स्कूल नहीं था। एक बेहद महँगे और चुनौतीपूर्ण व्यवसाय की शुरुआत में बागडोर अप्रशिक्षित लोगों को सँभालनी थी, नतीजतन फ़िल्म 'सती सावित्री' की शूटिंग पूरी होने के बाद, जब उसकी रील लन्दन धुलाई के लिए भेजी गयी तो रील पूरी की पूरी कोरी निकली, उसमें किसी भी छवि का अंकन नहीं हो सका था, फलस्वरूप, हज़ारों रुपया बर्बाद हो गया। ऐसी तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी कैसे स्वदेशी फ़िल्मकारों ने सिलसिलेवार जोखिम उठाये और हिन्दुस्तानी मिट्टी में भारतीय सिनेमा का बीज बोया। वक़्त के साथ सिनेमा में अभिनय, तकनीक और संगीत के स्वर्ण-कलश चढ़ते रहे। लेकिन नींव का पत्थर किसी को याद नहीं। हिन्दुस्तानी सिनेमा के बुनियाद के पत्थर को हम भूल गये हैं जिसकी आधारशिला पर भारतीय सिनेमा की दीवारें और शिखर आज खड़े हैं। यह पुस्तक भारतीय सिनेमा के उस बुनियाद के पत्थर को तलाशने, पहचानने और जानने का एक प्रयास है|
List(s) this item appears in: New Arrivals June, 2025
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Books Books Gandhi Smriti Library H 791.43054 OJH (Browse shelf(Opens below)) Available 180848
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भारतीय मूक सिनेमा पर केन्द्रित यह एक ऐसी प्रामाणिक किताब है, जिसमें फ़्रांस से सिनेमा के हिन्दुस्तान में प्रथम आगमन से लेकर, पहले दिन से सिनेमा के एक व्यवसाय के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने की पूरी कहानी है। जब सिनेमा ने हिन्दुस्तान में अपना क़दम रखा तो फ़िल्म निर्माण के लिए हिन्दुस्तानी संस्कृति और समाज तैयार नहीं था। फ़िल्म में स्त्री क़िरदार निभाने के लिए कोई भारतीय महिला राज़ी नहीं थी। कोई माँ अपने बच्चे को फ़िल्मी पर्दे पर मरते हुए नहीं देख सकती थी। सिनेमा सीखने का कोई स्कूल नहीं था। एक बेहद महँगे और चुनौतीपूर्ण व्यवसाय की शुरुआत में बागडोर अप्रशिक्षित लोगों को सँभालनी थी, नतीजतन फ़िल्म 'सती सावित्री' की शूटिंग पूरी होने के बाद, जब उसकी रील लन्दन धुलाई के लिए भेजी गयी तो रील पूरी की पूरी कोरी निकली, उसमें किसी भी छवि का अंकन नहीं हो सका था, फलस्वरूप, हज़ारों रुपया बर्बाद हो गया। ऐसी तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी कैसे स्वदेशी फ़िल्मकारों ने सिलसिलेवार जोखिम उठाये और हिन्दुस्तानी मिट्टी में भारतीय सिनेमा का बीज बोया। वक़्त के साथ सिनेमा में अभिनय, तकनीक और संगीत के स्वर्ण-कलश चढ़ते रहे। लेकिन नींव का पत्थर किसी को याद नहीं। हिन्दुस्तानी सिनेमा के बुनियाद के पत्थर को हम भूल गये हैं जिसकी आधारशिला पर भारतीय सिनेमा की दीवारें और शिखर आज खड़े हैं। यह पुस्तक भारतीय सिनेमा के उस बुनियाद के पत्थर को तलाशने, पहचानने और जानने का एक प्रयास है|

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