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Kissan ki sadi

Contributor(s): Material type: TextTextPublication details: New Delhi Vani 2025Description: 311pISBN:
  • 9789362875617
Subject(s): DDC classification:
  • H SHE A
Summary: मेरी चिन्ता उनको लेकर है जो हर जगह से बेदख़ल हैं। जिन्हें किसान कहा जाता है उसके अनेक भेद हैं— बड़े फार्म हाउस के मालिक, बड़ी जोत वाले, मँझोले किसान, छोटे या सीमान्त किसान जो लगातार भूमिहीन होते जाते हैं, और बेज़मीन खेत मज़दूर तथा रैयत। सबकी समस्या अलग है। प्रकृति की सबसे ज़्यादा लूट उद्योगों के साथ बड़े किसानों ने की है। ज़मीन को लगभग बंजर बनाकर, उसकी अतिरिक्त उपज को, यानी अतिरिक्त मूल्य को हड़पकर; धरती के पानी को सोख कर और खेत-मज़दूरों का शोषण करके उसने भारी तबाही मचायी है। उसे बिजली, पानी, खाद, टैक्स सब पर भारी रियायत मिलती है। मैं उनका पक्ष नहीं ले सकता। दूसरी तरफ छोटे किसान हैं जो लगातार कंगाल बन रहे हैं। खेती के औद्योगीकीरण ने छोटी जोतों को बेकाम कर दिया है। इसी के साथ खेतिहर भूमिहीन मज़दूर हैं जिनकी आबादी लगभग तीस प्रतिशत है। इनकी हालत सबसे ज़्यादा ख़राब है। ये अधिकतर दलित या दूसरी समकक्ष जातियों के हैं। पहले भूमि सुधार, ज़मीन का बँटवारा, जो जोते ज़मीन उसकी ये बातें होती थीं, अब नहीं होतीं। लेकिन होनी चाहिए। पता करिए कि बिहार में सबसे ज़्यादा ज़मीन किस जाति के पास है। मैं बेज़मीन मज़दूरों के साथ हूँ। खेत और कारख़ानों के मज़दूर मिल कर लड़ें। एक तीसरा समूह भी है। वो है गरीब आदिवासियों का जिनकी ज़मीन उनका जंगल है जहाँ से वे लगातार बाहर ढकेले जा रहे हैं। चौथा समूह नदी, समुद्र के मछुआरों का है जिनसे उनकी खेती यानी जल छीना जा रहा है। सबै भूमि गोपाल की जिस पर अमीरों का कब्ज़ा हुआ। फिर जंगल और जल पर। मेरी चिन्ता उनको लेकर है जो हर जगह से बेदख़ल हैं। एक और समूह है कारीगरों का-धुनियाँ, बेंत की कुर्सी बुनने वाले, चाकू पजाने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले, ठठेरे, कंसारा, मदारी वगैरह। इनकी हालत बहुत ख़राब है। पूँजीवाद जीवन और काम के हर इलाक़े में थूथन घुसेड़ चुका है। आज पूँजीवाद शब्द चलन के बाहर है। सारी राजनीति जात और भगवान तक सीमित है। पूँजीवाद को खेत का हर टुकड़ा चाहिए। कश्मीर और निकोबार और रेगिस्तान।bचाहिए— कुछ भी मुनाफ़े से छूटे नहीं। किसान आन्दोलन को पूँजीवादी हड़प के विरोध में सभी सर्वहारा का साथ लेना चाहिए और उनके साथ बराबरी का व्यवहार करना चाहिए। धूमिल का महान बिम्ब है— एक मादा भेड़िया एक तरफ़ तो अपने छौने को दूध पिला रही है, दूसरी तरफ़ एक मेमने का सिर चबा रही है। यह नहीं चलेगा। मैं सर्वहारा के साथ हूँ, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों। प्रसिद्ध कवि अरुण शीतांश द्वारा सम्पादित ‘किसान की सदी’ नामक पुस्तक की शुभकामना देता हूँ। —अरुण कमल
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Books Books Gandhi Smriti Library H SHE A (Browse shelf(Opens below)) Available 180692
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मेरी चिन्ता उनको लेकर है जो हर जगह से बेदख़ल हैं। जिन्हें किसान कहा जाता है उसके अनेक भेद हैं— बड़े फार्म हाउस के मालिक, बड़ी जोत वाले, मँझोले किसान, छोटे या सीमान्त किसान जो लगातार भूमिहीन होते जाते हैं, और बेज़मीन खेत मज़दूर तथा रैयत। सबकी समस्या अलग है। प्रकृति की सबसे ज़्यादा लूट उद्योगों के साथ बड़े किसानों ने की है। ज़मीन को लगभग बंजर बनाकर, उसकी अतिरिक्त उपज को, यानी अतिरिक्त मूल्य को हड़पकर; धरती के पानी को सोख कर और खेत-मज़दूरों का शोषण करके उसने भारी तबाही मचायी है। उसे बिजली, पानी, खाद, टैक्स सब पर भारी रियायत मिलती है। मैं उनका पक्ष नहीं ले सकता। दूसरी तरफ छोटे किसान हैं जो लगातार कंगाल बन रहे हैं। खेती के औद्योगीकीरण ने छोटी जोतों को बेकाम कर दिया है। इसी के साथ खेतिहर भूमिहीन मज़दूर हैं जिनकी आबादी लगभग तीस प्रतिशत है। इनकी हालत सबसे ज़्यादा ख़राब है। ये अधिकतर दलित या दूसरी समकक्ष जातियों के हैं। पहले भूमि सुधार, ज़मीन का बँटवारा, जो जोते ज़मीन उसकी ये बातें होती थीं, अब नहीं होतीं। लेकिन होनी चाहिए। पता करिए कि बिहार में सबसे ज़्यादा ज़मीन किस जाति के पास है। मैं बेज़मीन मज़दूरों के साथ हूँ। खेत और कारख़ानों के मज़दूर मिल कर लड़ें। एक तीसरा समूह भी है। वो है गरीब आदिवासियों का जिनकी ज़मीन उनका जंगल है जहाँ से वे लगातार बाहर ढकेले जा रहे हैं। चौथा समूह नदी, समुद्र के मछुआरों का है जिनसे उनकी खेती यानी जल छीना जा रहा है। सबै भूमि गोपाल की जिस पर अमीरों का कब्ज़ा हुआ। फिर जंगल और जल पर। मेरी चिन्ता उनको लेकर है जो हर जगह से बेदख़ल हैं। एक और समूह है कारीगरों का-धुनियाँ, बेंत की कुर्सी बुनने वाले, चाकू पजाने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले, ठठेरे, कंसारा, मदारी वगैरह। इनकी हालत बहुत ख़राब है। पूँजीवाद जीवन और काम के हर इलाक़े में थूथन घुसेड़ चुका है। आज पूँजीवाद शब्द चलन के बाहर है। सारी राजनीति जात और भगवान तक सीमित है। पूँजीवाद को खेत का हर टुकड़ा चाहिए। कश्मीर और निकोबार और रेगिस्तान।bचाहिए— कुछ भी मुनाफ़े से छूटे नहीं। किसान आन्दोलन को पूँजीवादी हड़प के विरोध में सभी सर्वहारा का साथ लेना चाहिए और उनके साथ बराबरी का व्यवहार करना चाहिए। धूमिल का महान बिम्ब है— एक मादा भेड़िया एक तरफ़ तो अपने छौने को दूध पिला रही है, दूसरी तरफ़ एक मेमने का सिर चबा रही है। यह नहीं चलेगा। मैं सर्वहारा के साथ हूँ, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों। प्रसिद्ध कवि अरुण शीतांश द्वारा सम्पादित ‘किसान की सदी’ नामक पुस्तक की शुभकामना देता हूँ। —अरुण कमल

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