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Prem mein ped hona

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi Rajkamal 2024Description: 95pISBN:
  • 9789360862787
Subject(s): DDC classification:
  • H 891.431 KER
Summary: जसिंता केरकेट्टा की ये कविताएँ, जैसा कि स्वाभाविक है, उस प्रेम की कविताएँ नहीं हैं, जो केवल दो व्यक्तियों के बीच होता है, ये कविताएँ उस प्रेम पर केन्द्रित हैं जिससे समग्र सृष्टि को संबल मिलता है। वह प्रेम जो मनुष्य का प्रकृति से है, वह प्रेम जो प्रकृति बिना किसी प्रतिसाद की कामना के समूची मानवता को देती है! ये कविताएँ उस क्षुद्रता को भी सम्बोधित हैं, जिसका प्रदर्शन हम प्रकृति के उस प्रेम का अन्यायपूर्ण बँटवारा करके करते हैं। जसिंता ने बहैसियत कवि और बहैसियत व्यक्ति इस प्रेम के वैभव को बहुत नज़दीक से देखा और आत्मसात किया है; इसी प्रेम के चलते उन्होंने आदिवासी जन की पीड़ा और प्रकृति के आर्तनाद को अपनी कविता में लगातार जगह दी है। प्रेम क्यों नहीं बहुतों से हो सकता है? बहुत सारे लोगों, बहुत सारे बच्चों, ​स्त्रियों, पेड़-पौधों, नदी, झरनों, पहाड़ों और पूरी धरती से? वे सही ही पूछती हैं। इस संग्रह में निसन्देह कुछ कविताओं में हमें वह प्रेम भी मिलता है; जो दो व्यक्तियों के बीच होता है। लेकिन इसे भी देखने का उनका नज़रिया वही नहीं है, जो सबके लिए सामान्य है। इसीलिए वे ये पंक्तियाँ लिख पाती हैं : प्रेम में आदमी/क्यों एक हो जाना चाहता है?/अपनी भिन्नता के साथ/क्यों दो नहीं रह पाता?—और इस प्रश्न का समाहार वे वर्तमान के एक बड़े फलक पर ले जाकर करती हैं : इधर देश के प्रेम में कुछ लोग/सबको ‘एक’ कर देना चाहते हैं/जो ‘एक’ न हो पाए, वे मारे जाते हैं। प्रेम का अर्थ ‘क़ब्ज़ा’ नहीं होता/न किसी की देह, न ख़ुशियों, न सपनों पर—इन पंक्तियों को हम इस कविता-संग्रह का एकाग्र मंतव्य कह सकते हैं, जिसका विस्तार एक व्यक्ति से लेकर प्रकृति के विराट तक है।
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जसिंता केरकेट्टा की ये कविताएँ, जैसा कि स्वाभाविक है, उस प्रेम की कविताएँ नहीं हैं, जो केवल दो व्यक्तियों के बीच होता है, ये कविताएँ उस प्रेम पर केन्द्रित हैं जिससे समग्र सृष्टि को संबल मिलता है। वह प्रेम जो मनुष्य का प्रकृति से है, वह प्रेम जो प्रकृति बिना किसी प्रतिसाद की कामना के समूची मानवता को देती है! ये कविताएँ उस क्षुद्रता को भी सम्बोधित हैं, जिसका प्रदर्शन हम प्रकृति के उस प्रेम का अन्यायपूर्ण बँटवारा करके करते हैं। जसिंता ने बहैसियत कवि और बहैसियत व्यक्ति इस प्रेम के वैभव को बहुत नज़दीक से देखा और आत्मसात किया है; इसी प्रेम के चलते उन्होंने आदिवासी जन की पीड़ा और प्रकृति के आर्तनाद को अपनी कविता में लगातार जगह दी है। प्रेम क्यों नहीं बहुतों से हो सकता है? बहुत सारे लोगों, बहुत सारे बच्चों, ​स्त्रियों, पेड़-पौधों, नदी, झरनों, पहाड़ों और पूरी धरती से? वे सही ही पूछती हैं। इस संग्रह में निसन्देह कुछ कविताओं में हमें वह प्रेम भी मिलता है; जो दो व्यक्तियों के बीच होता है। लेकिन इसे भी देखने का उनका नज़रिया वही नहीं है, जो सबके लिए सामान्य है। इसीलिए वे ये पंक्तियाँ लिख पाती हैं : प्रेम में आदमी/क्यों एक हो जाना चाहता है?/अपनी भिन्नता के साथ/क्यों दो नहीं रह पाता?—और इस प्रश्न का समाहार वे वर्तमान के एक बड़े फलक पर ले जाकर करती हैं : इधर देश के प्रेम में कुछ लोग/सबको ‘एक’ कर देना चाहते हैं/जो ‘एक’ न हो पाए, वे मारे जाते हैं। प्रेम का अर्थ ‘क़ब्ज़ा’ नहीं होता/न किसी की देह, न ख़ुशियों, न सपनों पर—इन पंक्तियों को हम इस कविता-संग्रह का एकाग्र मंतव्य कह सकते हैं, जिसका विस्तार एक व्यक्ति से लेकर प्रकृति के विराट तक है।

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