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Stree: adhikar aur kanoon

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi Rajkamal 2024Description: 263pISBN:
  • 9789360867874
Subject(s): DDC classification:
  • H NAS T
Summary: ‘स्त्री : अधिकार और क़ानून’ तसलीमा नसरीन के आलेखों और टिप्पणियों का संकलन है। उनकी बहस मानवीय स्वतंत्रता के पक्षधर ऐसे तर्कों के आधार पर होती है, जिन्हें खुली सोच वाला कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति स्वीकार करेगा। लेकिन धार्मिक, पारम्परिक और शक्तिकामी दुराग्रहों में उलझे लोगों को वे स्वीकार्य नहीं लगते। उनके कहने का ढंग और उनकी भाषा भी कई लोगों को आपत्तिजनक लगती है। इस संकलन के आलेखों में तसलीमा नसरीन ने तीन तलाक, घरेलू हिंसा, विवाह, समलैंगिकता, बांग्लादेश में हिन्दू ​स्त्रियों की स्थिति, बहुविवाह, महिला दिवस, स्त्री-देह, परिवार और अन्य कई विषयों पर विचार किया है—कहीं संस्मरणात्मक पृष्ठभूमि में और कहीं घटनाओं के बहाने से। उनका कहना है कि अत्याचार के शिकार मनुष्यों में स्त्रियाँ ही एकमात्र ऐसा समूह हैं, जो अत्यन्त घनिष्ठ रूप में अपने अत्याचारियों के साथ वास करता है। पश्चिम की स्त्रियों ने अपने लिए एक घर का इन्तज़ाम कर लिया है, तो समाज उन्हें अब कोई डर नहीं दिखाता, लेकिन भारतवर्ष की स्त्रियों को समाज लाल सुर्ख़ आँखों से ऐसे घूर रहा है कि वे डर के मारे दुबकी हुई हैं। समलैंगिकता के विषय में उनका कहना है कि जो लोग इस समुदाय की सामाजिक स्वीकृति का समर्थन नहीं करते, उनके अधिकारों के पक्ष में खड़े नहीं होते, उन्हें मानवाधिकारों का पक्षधर भी नहीं कहा जा सकता, और न ही प्रगतिशील। वे ज़ोर देकर कहती हैं कि समकामी या समलैंगिक होना सिर्फ़ यौन-सम्बन्धों का मसला नहीं है, यह प्रेम का सम्बन्ध है। स्त्रियों से जुड़े कई अन्य सामाजिक और क़ानूनी पहलुओं पर उन्होंने ‌इसी तरह दो टूक विचार किया है।
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‘स्त्री : अधिकार और क़ानून’ तसलीमा नसरीन के आलेखों और टिप्पणियों का संकलन है। उनकी बहस मानवीय स्वतंत्रता के पक्षधर ऐसे तर्कों के आधार पर होती है, जिन्हें खुली सोच वाला कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति स्वीकार करेगा। लेकिन धार्मिक, पारम्परिक और शक्तिकामी दुराग्रहों में उलझे लोगों को वे स्वीकार्य नहीं लगते। उनके कहने का ढंग और उनकी भाषा भी कई लोगों को आपत्तिजनक लगती है। इस संकलन के आलेखों में तसलीमा नसरीन ने तीन तलाक, घरेलू हिंसा, विवाह, समलैंगिकता, बांग्लादेश में हिन्दू ​स्त्रियों की स्थिति, बहुविवाह, महिला दिवस, स्त्री-देह, परिवार और अन्य कई विषयों पर विचार किया है—कहीं संस्मरणात्मक पृष्ठभूमि में और कहीं घटनाओं के बहाने से। उनका कहना है कि अत्याचार के शिकार मनुष्यों में स्त्रियाँ ही एकमात्र ऐसा समूह हैं, जो अत्यन्त घनिष्ठ रूप में अपने अत्याचारियों के साथ वास करता है। पश्चिम की स्त्रियों ने अपने लिए एक घर का इन्तज़ाम कर लिया है, तो समाज उन्हें अब कोई डर नहीं दिखाता, लेकिन भारतवर्ष की स्त्रियों को समाज लाल सुर्ख़ आँखों से ऐसे घूर रहा है कि वे डर के मारे दुबकी हुई हैं। समलैंगिकता के विषय में उनका कहना है कि जो लोग इस समुदाय की सामाजिक स्वीकृति का समर्थन नहीं करते, उनके अधिकारों के पक्ष में खड़े नहीं होते, उन्हें मानवाधिकारों का पक्षधर भी नहीं कहा जा सकता, और न ही प्रगतिशील। वे ज़ोर देकर कहती हैं कि समकामी या समलैंगिक होना सिर्फ़ यौन-सम्बन्धों का मसला नहीं है, यह प्रेम का सम्बन्ध है। स्त्रियों से जुड़े कई अन्य सामाजिक और क़ानूनी पहलुओं पर उन्होंने ‌इसी तरह दो टूक विचार किया है।

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