Amazon cover image
Image from Amazon.com
Image from Google Jackets

Har barish mein

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi Rajkamal 2024Description: 151pISBN:
  • 9789360863296
Subject(s): DDC classification:
  • H VER N
Summary: निर्मल वर्मा अपनी इस पुस्तक और इसके निबन्धों को­­ भी, दो पूर्ण बिन्दुओं के बीच की कड़ी मानते थे। विधा के रूप में भी ये आलेख यात्रावृत्त और निबन्ध के बीच कहीं ठहरते हैं, ‘जहाँ न भोग का सुख है, न समाधान का निश्चय’। अपने दूसरे यूरोप प्रवास के दौरान उन्होंने यूरोप की धड़कन, उसके गौरव और शर्म के क्षणों को बहुत नज़दीक से देखा-सुना था। इस लिहाज से यह पुस्तक एक ऐसी नियतिपूर्ण घड़ी का दस्तावेज़ है, जब बीसवीं शती के अनेक काले-उजले पन्ने पहली बार खुले थे। दुब्चेक काल का प्राग-वसन्त, सोवियत-स्वप्न का मोह-भंग, पेरिस के बेरिकेडों पर उगती आकांक्षाएँ—ऐसी अभूतपूर्व घटनाएँ थीं, जिन्हें हमारी ढलती शताब्दी की छाया में निर्मल वर्मा ने पकड़ने की कोशिश की, किसी बने-बनाए आइने के माध्यम से नहीं बल्कि सम्पूर्णतया अपनी नंगी आँखों के सहारे। शायद यही कारण है कि इस पुस्तक के निबन्ध कभी-कभी एक ऐसे ‘निर्वासित’ लेखक के रिपोर्ताज जान पड़ते हैं, जिनमें उन्होंने ‘युद्ध’ के मोर्चे पर घायल संस्कृतियों के घावों को जैसा देखा, वैसा ही आँकने की कोशिश की और भारतीय आत्मसन्तोष से हटकर, ख़ुद अपने देश की व्यवस्था को इन घावों में रिसते देखा। वैज्ञानिक प्रगति के अकल्पनीय चरणों को पार करने के बाद आज भी जब हम देखते हैं कि इतिहास से न राजनीति ने कुछ सीखा है, न संस्कृतियों और धर्मों ने, तो इन निबन्धों को पढ़ना, इनकी अन्तर्दृष्टि तक पहुँचना और ज़रूरी जान पड़ता है।
Tags from this library: No tags from this library for this title. Log in to add tags.
Star ratings
    Average rating: 0.0 (0 votes)
Holdings
Item type Current library Call number Status Date due Barcode Item holds
Books Books Gandhi Smriti Library H VER N (Browse shelf(Opens below)) Available 180287
Total holds: 0

निर्मल वर्मा अपनी इस पुस्तक और इसके निबन्धों को­­ भी, दो पूर्ण बिन्दुओं के बीच की कड़ी मानते थे। विधा के रूप में भी ये आलेख यात्रावृत्त और निबन्ध के बीच कहीं ठहरते हैं, ‘जहाँ न भोग का सुख है, न समाधान का निश्चय’। अपने दूसरे यूरोप प्रवास के दौरान उन्होंने यूरोप की धड़कन, उसके गौरव और शर्म के क्षणों को बहुत नज़दीक से देखा-सुना था। इस लिहाज से यह पुस्तक एक ऐसी नियतिपूर्ण घड़ी का दस्तावेज़ है, जब बीसवीं शती के अनेक काले-उजले पन्ने पहली बार खुले थे। दुब्चेक काल का प्राग-वसन्त, सोवियत-स्वप्न का मोह-भंग, पेरिस के बेरिकेडों पर उगती आकांक्षाएँ—ऐसी अभूतपूर्व घटनाएँ थीं, जिन्हें हमारी ढलती शताब्दी की छाया में निर्मल वर्मा ने पकड़ने की कोशिश की, किसी बने-बनाए आइने के माध्यम से नहीं बल्कि सम्पूर्णतया अपनी नंगी आँखों के सहारे। शायद यही कारण है कि इस पुस्तक के निबन्ध कभी-कभी एक ऐसे ‘निर्वासित’ लेखक के रिपोर्ताज जान पड़ते हैं, जिनमें उन्होंने ‘युद्ध’ के मोर्चे पर घायल संस्कृतियों के घावों को जैसा देखा, वैसा ही आँकने की कोशिश की और भारतीय आत्मसन्तोष से हटकर, ख़ुद अपने देश की व्यवस्था को इन घावों में रिसते देखा। वैज्ञानिक प्रगति के अकल्पनीय चरणों को पार करने के बाद आज भी जब हम देखते हैं कि इतिहास से न राजनीति ने कुछ सीखा है, न संस्कृतियों और धर्मों ने, तो इन निबन्धों को पढ़ना, इनकी अन्तर्दृष्टि तक पहुँचना और ज़रूरी जान पड़ता है।

There are no comments on this title.

to post a comment.

Powered by Koha