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Goh

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi Vani 2010Description: 108pISBN:
  • 9789350002308
Subject(s): DDC classification:
  • H DEV M
Summary: गोह - 'गोहो' एक ऐसे मासूम बच्चे की कथा है, जो बेहद अकेला है और हर वक़्त किसी मित्र की तलाश में जुटा रहता है। माँ अपने निजी जीवन में व्यस्त, अपने बेटे का स्वभाव और अस्वाभाविक तलाश देख कर, मन ही मन कहीं हैरान है। उसे अपना बेटा बेहद अस्वाभाविक लगता है। अपने किसी काम से, जब वह कुछ दिनों के लिए दिल्ली जाती है, उसकी अनुपस्थिति में बच्चे का पिता ही, उसका परम मित्र बन जाता है। मगर माँ के लौटते ही, बच्चा फिर अकेला हो जाता है, क्योंकि, माँ-बाप फिर अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाते हैं। बच्चे 'गोह' की कल्पना, अचानक स्नानघर की दीवारों पर पड़ी पानी की बूँदों तरह-तरह की आकृतियों में, किसी एक के बजाय, ढेरों मित्र खोज लेती है। अब, वे विभिन्न आकृतियाँ उसकी परम मित्र बन जाती हैं। अब, वह उनसे ही अपने मन की बातें कहता सुनता है। उसके साथ खेलता है। उसकी कल्पना में वे आकृतियाँ, उसका अकेलापन भर देती हैं। विविध क्षेत्रों की अलग-अलग तस्वीर पेश करती हुई, महाश्वेता की सशक्त लेखनी, लेखन-कर्म की प्रतिबद्धता को उजागर करती है।
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गोह - 'गोहो' एक ऐसे मासूम बच्चे की कथा है, जो बेहद अकेला है और हर वक़्त किसी मित्र की तलाश में जुटा रहता है। माँ अपने निजी जीवन में व्यस्त, अपने बेटे का स्वभाव और अस्वाभाविक तलाश देख कर, मन ही मन कहीं हैरान है। उसे अपना बेटा बेहद अस्वाभाविक लगता है। अपने किसी काम से, जब वह कुछ दिनों के लिए दिल्ली जाती है, उसकी अनुपस्थिति में बच्चे का पिता ही, उसका परम मित्र बन जाता है। मगर माँ के लौटते ही, बच्चा फिर अकेला हो जाता है, क्योंकि, माँ-बाप फिर अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाते हैं। बच्चे 'गोह' की कल्पना, अचानक स्नानघर की दीवारों पर पड़ी पानी की बूँदों तरह-तरह की आकृतियों में, किसी एक के बजाय, ढेरों मित्र खोज लेती है। अब, वे विभिन्न आकृतियाँ उसकी परम मित्र बन जाती हैं। अब, वह उनसे ही अपने मन की बातें कहता सुनता है। उसके साथ खेलता है। उसकी कल्पना में वे आकृतियाँ, उसका अकेलापन भर देती हैं। विविध क्षेत्रों की अलग-अलग तस्वीर पेश करती हुई, महाश्वेता की सशक्त लेखनी, लेखन-कर्म की प्रतिबद्धता को उजागर करती है।

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