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Apne apne ajnabi

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi Vani 2022Edition: 26th edDescription: 72pISBN:
  • 9788126330539
Subject(s): DDC classification:
  • H AJN
Summary: अपने-अपने अजनबी - 'अपने-अपने अजनबी' अज्ञेय कृत एक अस्तित्ववादी उपन्यास है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि विदेशी है और दो विदेशी केन्द्रीय पात्रों सेल्मा और योके के माध्यम से उपन्यासकार ने पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व, अकेलेपन, मृत्युभय, आस्था-अनास्था आदि आन्तरिक भावनाओं को सुन्दर और गहन रूप से अभिव्यक्त किया है। आधुनिक युग की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम साथ होने के अहसास को खोते जा रहे हैं। तथाकथित अपना परिवार, समाज और रिश्ते दंश की तरह चुभने लगे हैं। यह अजनबीपन मनुष्य और मनुष्यता को अभिशप्त बना रहा है। साथ होते हुए भी लोग आन्तरिक रूप से बहुत अकेले हैं। क़रीब रहकर भी एक-दूसरे को समझ नहीं पाते हैं, एक-दूसरे के लिए अजनबी बने रहते हैं। वर्तमान युग के वैचारिक क्षेत्र में आज काफ़ी बदलाव आये हैं। अत्याधुनिकता के भीड़-भाड़ में फँसकर न जाने हम कब कितने स्वार्थी बन गये। आवश्यकता से अधिक व्यावसायिक मुनाफ़ों के बारे में हर पल सोचते हैं। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ज़्यादा जागरूक रहते हैं, प्रतियोगिता की भावनाओं ने हमें एक यन्त्र के रूप में परिवर्तित कर दिया है। दूसरों के अस्तित्व के सिद्धान्त और मूल्य हमारे जीवन मूल्य के आगे फीके पड़ गये हैं। निजत्व की भावनाओं के कारण हमारे भीतर की सद्वृत्तियाँ प्रायः कम होती जा रही हैं। पारस्परिक सद्भावना, सहृदयता, प्रेम, दया, करुणा आदि जो हमारे जीवन के अपरिहार्य अंग थे, अब उन सद्वृत्तियों के अस्तित्व हम खोज नहीं पाते। हमारी मानसिकता में इतने द्रुत परिवर्तन आ गये हैं कि हमारे जीवन में इन सब सद्वृत्तियों का अस्तित्व लगभग मिट गया है। और इसी की पहचान करना 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास की मूल संवेदना है। "
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अपने-अपने अजनबी - 'अपने-अपने अजनबी' अज्ञेय कृत एक अस्तित्ववादी उपन्यास है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि विदेशी है और दो विदेशी केन्द्रीय पात्रों सेल्मा और योके के माध्यम से उपन्यासकार ने पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व, अकेलेपन, मृत्युभय, आस्था-अनास्था आदि आन्तरिक भावनाओं को सुन्दर और गहन रूप से अभिव्यक्त किया है। आधुनिक युग की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम साथ होने के अहसास को खोते जा रहे हैं। तथाकथित अपना परिवार, समाज और रिश्ते दंश की तरह चुभने लगे हैं। यह अजनबीपन मनुष्य और मनुष्यता को अभिशप्त बना रहा है। साथ होते हुए भी लोग आन्तरिक रूप से बहुत अकेले हैं। क़रीब रहकर भी एक-दूसरे को समझ नहीं पाते हैं, एक-दूसरे के लिए अजनबी बने रहते हैं। वर्तमान युग के वैचारिक क्षेत्र में आज काफ़ी बदलाव आये हैं। अत्याधुनिकता के भीड़-भाड़ में फँसकर न जाने हम कब कितने स्वार्थी बन गये। आवश्यकता से अधिक व्यावसायिक मुनाफ़ों के बारे में हर पल सोचते हैं। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ज़्यादा जागरूक रहते हैं, प्रतियोगिता की भावनाओं ने हमें एक यन्त्र के रूप में परिवर्तित कर दिया है। दूसरों के अस्तित्व के सिद्धान्त और मूल्य हमारे जीवन मूल्य के आगे फीके पड़ गये हैं। निजत्व की भावनाओं के कारण हमारे भीतर की सद्वृत्तियाँ प्रायः कम होती जा रही हैं। पारस्परिक सद्भावना, सहृदयता, प्रेम, दया, करुणा आदि जो हमारे जीवन के अपरिहार्य अंग थे, अब उन सद्वृत्तियों के अस्तित्व हम खोज नहीं पाते। हमारी मानसिकता में इतने द्रुत परिवर्तन आ गये हैं कि हमारे जीवन में इन सब सद्वृत्तियों का अस्तित्व लगभग मिट गया है। और इसी की पहचान करना 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास की मूल संवेदना है। "

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