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Rajyog: Patanjali-Yogasuutra, sutrartha aura vyakhya sahita

By: Material type: TextTextPublication details: Delhi Archana Publishers and Distributor 2022.Description: 222 pISBN:
  • 9789383964093
Subject(s): DDC classification:
  • H 181.452 VIV
Summary: ऐतिहासिक जगत के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान काल तक मानव समाज में अनेक अलौकिक घटनाओं के उल्लेख देखने को मिलते है। आज भी, जो समाज आधुनिक विज्ञान के भरपूर आलोक में रह रहे हैं. उनमें भी ऐसी घटनाओं की गवाही देनेवाले लोगों की कमी नहीं पर डॉ. ऐसे प्रमाणों में अधिकांश विश्वास-योग्य नहीं, क्योंकि जिन व्यक्तियों से ऐसे प्रमाण मिलते हैं, उनमें से बहुतेरे अज्ञ है, कुसंस्काराच्छन्न है अथवा धूर्त है।' बहुधा यह भी देखा जाता है कि लोग जिन घटनाओं को अलौकिक कहते हैं, वे वास्तव में नकल है। पर प्रश्न उठता है, किसकी नकल ? यथार्थ अनुसन्धान किए बिना कोई बात बिलकुल उड़ा देना सत्यप्रिय वैज्ञानिकमन का परिचय नहीं देता जो वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी 1 नहीं, ये मनोरज्य की नाना प्रकार की अलौकिक घटनाओं की व्याख्या करने में असमर्थ हो उन सबका अस्तित्व ही उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं अतएव वे तो उन व्यक्तियों से अधिक दोशी हैं, जो सोचते हैं कि बादलों के ऊपर अवस्थित कोई पुरुश विशेश या बहुत से पुरुशगण उनकी प्रार्थनाओं को सुनते हैं और उनके उत्तर देते हैं अथवा उन लोगों से, जिनका विश्वास है कि ये पुरुश उनकी प्रार्थनाओं के कारण संसार का नियम ही बदल देंगे। क्योंकि इन बाद के व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह दोहाई दी जा सकती है कि वे अज्ञानी हैं, अथवा कम-से-कम यह कि उनकी शिक्षा प्रणाली दूषित रही है, जिसने उन्हें ऐसे अप्राकृतिक पुरुशो का सहारा लेने की सीख दी और जो निर्भरता अब उनके अवनत स्वभाव का एक अंग ही बन गई है पर पूर्वोक्त शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो ऐसी किसी दोहाई की गुंजाइश नहीं। प्रस्तुत पुस्तक का विषय है-राज-योग पातंजल-सूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी-किसी दार्शनिक विशय में पतंजलि से मतभेद होने पर भी वे सभी, निश्चित रूप से, उनकी साधनाप्रणाली का अनुमोदन करते हैं। लेखक ने न्यूयार्क में कुछ छात्रों को इस योग की शिक्षा देने के लिए जो वक्तृताएँ दी थी, वे ही इस पुस्तक के प्रथम अंश में निबद्ध है। और इसके दूसरे अंश में पतंजलि के सूत्र उन सूत्रों के अर्थ और उन पर संक्षिप्त टीका भी सन्निविष्ट कर दी गई है। जहाँ तक सम्भव हो सका, पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग न करने और वार्तालाप की सहज और सरल भाषा में लिखने का प्रयत्न किया गया है। इसके प्रथमांश में साधनार्थियों के लिए कुछ सरल और विशेश उपदेश दिए गए हैं, पर उन सभी लोगों को विशेष रूप से सावधान कर दिया जा रहा है कि योग के कुछ साधारण अंगों को छोड़कर, निरापद योग शिक्षा के लिए गुरु का सदा पास रहना आवश्यक है। वार्तालाप के रूप में प्रदत्त ये सब उपदेश यदि लोगों के हृदय में इस विशय पर और भी अधिक जानने की पिपासा जगा दे, तो फिर गुरु का अभाव न रहेगा। पातंजलदर्शन साख्यमत पर स्थापित है। इन दोनों मतों में अन्तर ही थोड़ा है। इनके दो प्रधान मतभेद ये हैं-पहला तो, पतंजलि बहुत आदि गुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, जब कि साख्य का ईश्वर लगभग पूर्णताप्राप्त एक व्यक्ति मात्र है, जो कुछ समय तक एक सृष्टि कल्प का शासन करता है। और दूसरा, योगीगण आत्मा या पुरुष के समान मन को भी सर्वव्यापी मानते हैं, पर साख्यमतवाले नहीं।
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ऐतिहासिक जगत के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान काल तक मानव समाज में अनेक अलौकिक घटनाओं के उल्लेख देखने को मिलते है। आज भी, जो समाज आधुनिक विज्ञान के भरपूर आलोक में रह रहे हैं. उनमें भी ऐसी घटनाओं की गवाही देनेवाले लोगों की कमी नहीं पर डॉ. ऐसे प्रमाणों में अधिकांश विश्वास-योग्य नहीं, क्योंकि जिन व्यक्तियों से ऐसे प्रमाण मिलते हैं, उनमें से बहुतेरे अज्ञ है, कुसंस्काराच्छन्न है अथवा धूर्त है।' बहुधा यह भी देखा जाता है कि लोग जिन घटनाओं को अलौकिक कहते हैं, वे वास्तव में नकल है। पर प्रश्न उठता है, किसकी नकल ? यथार्थ अनुसन्धान किए बिना कोई बात बिलकुल उड़ा देना सत्यप्रिय वैज्ञानिकमन का परिचय नहीं देता जो वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी 1 नहीं, ये मनोरज्य की नाना प्रकार की अलौकिक घटनाओं की व्याख्या करने में असमर्थ हो उन सबका अस्तित्व ही उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं अतएव वे तो उन व्यक्तियों से अधिक दोशी हैं, जो सोचते हैं कि बादलों के ऊपर अवस्थित कोई पुरुश विशेश या बहुत से पुरुशगण उनकी प्रार्थनाओं को सुनते हैं और उनके उत्तर देते हैं अथवा उन लोगों से, जिनका विश्वास है कि ये पुरुश उनकी प्रार्थनाओं के कारण संसार का नियम ही बदल देंगे। क्योंकि इन बाद के व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह दोहाई दी जा सकती है कि वे अज्ञानी हैं, अथवा कम-से-कम यह कि उनकी शिक्षा प्रणाली दूषित रही है, जिसने उन्हें ऐसे अप्राकृतिक पुरुशो का सहारा लेने की सीख दी और जो निर्भरता अब उनके अवनत स्वभाव का एक अंग ही बन गई है पर पूर्वोक्त शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो ऐसी किसी दोहाई की गुंजाइश नहीं।
प्रस्तुत पुस्तक का विषय है-राज-योग पातंजल-सूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी-किसी दार्शनिक विशय में पतंजलि से मतभेद होने पर भी वे सभी, निश्चित रूप से, उनकी साधनाप्रणाली का अनुमोदन करते हैं। लेखक ने न्यूयार्क में कुछ छात्रों को इस योग की शिक्षा देने के लिए जो वक्तृताएँ दी थी, वे ही इस पुस्तक के प्रथम अंश में निबद्ध है। और इसके दूसरे अंश में पतंजलि के सूत्र उन सूत्रों के अर्थ और उन पर संक्षिप्त टीका भी सन्निविष्ट कर दी गई है। जहाँ तक सम्भव हो सका, पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग न करने और वार्तालाप की सहज और सरल भाषा में लिखने का प्रयत्न किया गया है। इसके प्रथमांश में साधनार्थियों के लिए कुछ सरल और विशेश उपदेश दिए गए हैं, पर उन सभी लोगों को विशेष रूप से सावधान कर दिया जा रहा है कि योग के कुछ साधारण अंगों को छोड़कर, निरापद योग शिक्षा के लिए गुरु का सदा पास रहना आवश्यक है। वार्तालाप के रूप में प्रदत्त ये सब उपदेश यदि लोगों के हृदय में इस विशय पर और भी अधिक जानने की पिपासा जगा दे, तो फिर गुरु का अभाव न रहेगा।

पातंजलदर्शन साख्यमत पर स्थापित है। इन दोनों मतों में अन्तर ही थोड़ा है। इनके दो प्रधान मतभेद ये हैं-पहला तो, पतंजलि बहुत आदि गुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, जब कि साख्य का ईश्वर लगभग पूर्णताप्राप्त एक व्यक्ति मात्र है, जो कुछ समय तक एक सृष्टि कल्प का शासन करता है। और दूसरा, योगीगण आत्मा या पुरुष के समान मन को भी सर्वव्यापी मानते हैं, पर साख्यमतवाले नहीं।

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