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Kumaon ki lokgathayein

By: Material type: TextTextPublication details: Dehradun Samay sakshay 2020Description: 310 pISBN:
  • 978-93-86452-15-3
Subject(s): DDC classification:
  • UK 891.4303 JOS
Summary: इस पुस्तक के पहले भाग में गंगू रमोला और सिदुवा विदुवा के 'भारत' प्रकाशित किये गये थे। इसमें दी जा रही 'हिमांत जातरा' में उन्हीं योद्धाओं की तराई भाबर की शीतकालीन पशुचारण यात्रा का 'भारत' है जिन्हें हमारे प्राचीन साहित्य में 'घोषयात्रा' कहा जाता रहा है। यातायात के आधुनिक साधनों का चलन होने से पूर्व पहाड़ी पशुचारकों-खेतिहरों की वर्ष चर्या की रोमांचक झांकी इनमें दिखाई देती है। उन दिनों जातीयता और सम्पन्नता के बूते पर ही आदमी की हैसियत बनती थी। सम्पन्नता तो 'शक्ति' आज भी है परन्तु जातीयता के समीकरण उलट गए हैं। हाँ सम्पन्न होने के नये-नये रास्ते निकल आये हैं। उन दिनों खेती और मवेशी ही एकमात्र साधन थे। बाहुबल की बड़ी भूमिका होती थी। मैदुवा सॉन और अजुवाबफौल उसी के नमूने हैं। वे अलग-अलग किस्म के योद्धा हैं। मैदुवासोंन खर्क का मालिक है। पशुपालन करता है। उसने अपने 'चनुवाँ बेले' को लड़ना-भिड़ना सिखाया है। कालीरौ के मठ्यालीबाज के बेले (भैंसे) से उसके जतिए की भिड़न्त होती है। सात दिन सात रातों तक वे रिभड़ते रहते हैं। सातवें दिन मठ्याली बाज का जतिया हार जाता है परन्तु मठ्यालीबाज हार स्वीकार नहीं करता। वह चनुवाँ जतिया के मालिक मैदुवासोंन को द्वन्द्ध युद्ध के लिये न्योतता है। निदान दो जतियों की लड़ाई दो जातीय धड़ों की लड़ाई हो जाती है। द्यो- असाड़ी के मेले में सोन और बाज अपनी-अपनी बल-बिरादरी लेकर उपस्थित हो जाते हैं। महर-फरत्यालों के पथरिया मार के दृश्य तो हम आज भी वहाँ देख सकते हैं। इस दृश्य से सोंन और बाजों की मार-धाड़ का अनुमान लगाया जा सकता है।
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Books Books Gandhi Smriti Library UK 891.4303 JOS (Browse shelf(Opens below)) Available 168395
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इस पुस्तक के पहले भाग में गंगू रमोला और सिदुवा विदुवा के 'भारत' प्रकाशित किये गये थे। इसमें दी जा रही 'हिमांत जातरा' में उन्हीं योद्धाओं की तराई भाबर की शीतकालीन पशुचारण यात्रा का 'भारत' है जिन्हें हमारे प्राचीन साहित्य में 'घोषयात्रा' कहा जाता रहा है। यातायात के आधुनिक साधनों का चलन होने से पूर्व पहाड़ी पशुचारकों-खेतिहरों की वर्ष चर्या की रोमांचक झांकी इनमें दिखाई देती है।

उन दिनों जातीयता और सम्पन्नता के बूते पर ही आदमी की हैसियत बनती थी। सम्पन्नता तो 'शक्ति' आज भी है परन्तु जातीयता के समीकरण उलट गए हैं। हाँ सम्पन्न होने के नये-नये रास्ते निकल आये हैं। उन दिनों खेती और मवेशी ही एकमात्र साधन थे। बाहुबल की बड़ी भूमिका होती थी। मैदुवा सॉन और अजुवाबफौल उसी के नमूने हैं। वे अलग-अलग किस्म के योद्धा हैं। मैदुवासोंन खर्क का मालिक है। पशुपालन करता है। उसने अपने 'चनुवाँ बेले' को लड़ना-भिड़ना सिखाया है। कालीरौ के मठ्यालीबाज के बेले (भैंसे) से उसके जतिए की भिड़न्त होती है। सात दिन सात रातों तक वे रिभड़ते रहते हैं। सातवें दिन मठ्याली बाज का जतिया हार जाता है परन्तु मठ्यालीबाज हार स्वीकार नहीं करता। वह चनुवाँ जतिया के मालिक मैदुवासोंन को द्वन्द्ध युद्ध के लिये न्योतता है। निदान दो जतियों की लड़ाई दो जातीय धड़ों की लड़ाई हो जाती है। द्यो- असाड़ी के मेले में सोन और बाज अपनी-अपनी बल-बिरादरी लेकर उपस्थित हो जाते हैं। महर-फरत्यालों के पथरिया मार के दृश्य तो हम आज भी वहाँ देख सकते हैं। इस दृश्य से सोंन और बाजों की मार-धाड़ का अनुमान लगाया जा सकता है।

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