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Dalit aatmakathaen : yathaisthiti se vidroh

By: Material type: TextTextPublication details: Swaraj Prakashan Agra 2020Edition: 1st edDescription: 184 pISBN:
  • 9789388891851
Subject(s): DDC classification:
  • H 891.4309 NAN
Summary: दलित साहित्य आंदोलन ने परंपरागत रूप से चली आ रही साहित्य की अवधारणा में आमूल-चूल परिवर्तन किया है। इस परिवर्तन को हम अनेक रूपों में देख सकते हैं। साहित्यिक विधाओं, विषय-वस्तु तथा भाषा में होने वाले इन बदलावों को सामान्य बदलाव न मानकर नये युग की शुरुआत के रूप में देखना चाहिए। साहित्यिक चिंतन में आए इन बदलावों के कारण मनुष्य की चिंतन दृष्टि में भी बदलाव हुआ है। जो लोग दलित साहित्य को जाति विशेष तक सीमित रखना चाहते हैं उनकी दृष्टि संकुचित और संवेदनाएँ सीमित हैं। यदि साहित्य मानवीय संवेदनाओं का वाहक है तो उसकी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपना क्षेत्र विस्तार कुछ इस तरह से करे कि प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना चेहरा देख सके, विपरीत परिस्थितियों में उससे मानसिक बल प्राप्त कर सके। साहित्य ने उपेक्षितों को वाणी दी है इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन दलित- प्रश्न आते ही साहित्य चूक जाता है, यह स्वीकार करने में हमें किसी भी तरह का संकोच नहीं होना चाहिए। इस संकुचित दृष्टि से साहित्य की अवधारणा एक नहीं अनेक बार खंडित हुई है। लम्बे समय से चली आ रही साहित्य की आधी-अधूरी परिभाषा को दलित साहित्य पूर्णता प्रदान करता है।
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Item type Current library Call number Status Date due Barcode Item holds
Books Books Gandhi Smriti Library H 891.4309 NAN (Browse shelf(Opens below)) Checked out to Ganga Hostel OT Launge (GANGA) 2023-09-28 168262
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दलित साहित्य आंदोलन ने परंपरागत रूप से चली आ रही साहित्य की अवधारणा में आमूल-चूल परिवर्तन किया है। इस परिवर्तन को हम अनेक रूपों में देख सकते हैं। साहित्यिक विधाओं, विषय-वस्तु तथा भाषा में होने वाले इन बदलावों को सामान्य बदलाव न मानकर नये युग की शुरुआत के रूप में देखना चाहिए। साहित्यिक चिंतन में आए इन बदलावों के कारण मनुष्य की चिंतन दृष्टि में भी बदलाव हुआ है। जो लोग दलित साहित्य को जाति विशेष तक सीमित रखना चाहते हैं उनकी दृष्टि संकुचित और संवेदनाएँ सीमित हैं। यदि साहित्य मानवीय संवेदनाओं का वाहक है तो उसकी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपना क्षेत्र विस्तार कुछ इस तरह से करे कि प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना चेहरा देख सके, विपरीत परिस्थितियों में उससे मानसिक बल प्राप्त कर सके। साहित्य ने उपेक्षितों को वाणी दी है इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन दलित- प्रश्न आते ही साहित्य चूक जाता है, यह स्वीकार करने में हमें किसी भी तरह का संकोच नहीं होना चाहिए। इस संकुचित दृष्टि से साहित्य की अवधारणा एक नहीं अनेक बार खंडित हुई है। लम्बे समय से चली आ रही साहित्य की आधी-अधूरी परिभाषा को दलित साहित्य पूर्णता प्रदान करता है।

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