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Ham nangn ke

By: Material type: TextTextPublication details: Delhi Vidhya 2021Description: 176 pISBN:
  • 9788194677901
Subject(s): DDC classification:
  • H 891.43872 GAU
Summary: आज की भागदौड़ की जिंदगी में जहां अपने को पढ़ने का वक्त ही नहीं, उस दौर में सब अपने को बिन पढ़े गढ़ने में बदहवास जुटे हैं तो सवाल उठना वाजिब है कि इस संग्रह को क्यों पढ़ा जाए जब कि हमारे पास अपने को गढ़ने के हजारों भौतिक तरीके मौजूद है। तो इसे इस लिए पढ़ा जा सकता है कि इस संग्रह के व्यंग्यों को पढ़ते समय अपने भीतर से गुजरने का अहसास होगा। ये व्यंग्य हमें बताने में समर्थ होंगे कि हम यहां पर जीने आए हैं या औरों को जलाने असल में हम अपने जीने के चक्कर में औरों को तो जीने ही नहीं दे रहे हैं, पर अपने आप भी सही मायने में जी कहां रहे हैं? जीने का नाटक ही तो कर रहे हैं। जीने का दंभ ही तो भर रहे हैं। यह व्यंग्य हम सबके कहीं-न-कहीं के कुछ-न-कुछ वे विसंगत हिस्से हैं जिनको पढ़ने, सोचने, समझने के लिए अपने सूखे, शुष्क होंठों पर मुस्कान लाते हुए समय रहते अब सहला लेना जरूरी है ताकि हमें अपने पर पछतावा न होने के बाद भी कहीं तो सुकून मिले, यह जानने के बाद भी कहीं सोचने को दिमाग के एक हिस्से में इंच भर जगह मिले कि हम जिन विसंगतियों में जी रहे हैं, वे हमारे ही सु और कुप्रयासों का ही परिणाम हैं।
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Books Books Gandhi Smriti Library H 891.43872 GAU (Browse shelf(Opens below)) Available 168251
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आज की भागदौड़ की जिंदगी में जहां अपने को पढ़ने का वक्त ही नहीं, उस दौर में सब अपने को बिन पढ़े गढ़ने में बदहवास जुटे हैं तो सवाल उठना वाजिब है कि इस संग्रह को क्यों पढ़ा जाए जब कि हमारे पास अपने को गढ़ने के हजारों भौतिक तरीके मौजूद है।
तो इसे इस लिए पढ़ा जा सकता है कि इस संग्रह के व्यंग्यों को पढ़ते समय अपने भीतर से गुजरने का अहसास होगा। ये व्यंग्य हमें बताने में समर्थ होंगे कि हम यहां पर जीने आए हैं या औरों को जलाने असल में हम अपने जीने के चक्कर में औरों को तो जीने ही नहीं दे रहे हैं, पर अपने आप भी सही मायने में जी कहां रहे हैं? जीने का नाटक ही तो कर रहे हैं। जीने का दंभ ही तो भर रहे हैं।
यह व्यंग्य हम सबके कहीं-न-कहीं के कुछ-न-कुछ वे विसंगत हिस्से हैं जिनको पढ़ने, सोचने, समझने के लिए अपने सूखे, शुष्क होंठों पर मुस्कान लाते हुए समय रहते अब सहला लेना जरूरी है ताकि हमें अपने पर पछतावा न होने के बाद भी कहीं तो सुकून मिले, यह जानने के बाद भी कहीं सोचने को दिमाग के एक हिस्से में इंच भर जगह मिले कि हम जिन विसंगतियों में जी रहे हैं, वे हमारे ही सु और कुप्रयासों का ही परिणाम हैं।

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