Darpan mein we din
Material type:
- 9788195070039
- H 891.43 MAN
Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Gandhi Smriti Library | H 891.43 MAN (Browse shelf(Opens below)) | Available | 168189 |
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संस्मरणात्मक लेखों की अपनी यह पुस्तक मैंने 'उग्र'जी- पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' - को समर्पित की है। मैं जब मां की गोद में अभी आया ही था तब वे एक बार लहेरिया सराय आये थे, जहां मेरा जन्म हुआ था। मेरे बड़े भाई आनंदमूर्त्ति तब सात-आठ साल के थे। वे बतलाते थे: “संध्या में भंग का गोला चढ़ा कर 'उग्र' जी अपनी मौज में बाहर ही खाट पर घुटने पर पैर चढ़ाए लेटे हुए थे। एक सज्जन आए और प्रणाम करते हुए बोले – 'उग्र' जी, प्रणाम! कब आना हुआ? 'उग्र'जी ने बिना कुछ बोले • आधा मिनट बाद करवट बदल लिया, पर बोले कुछ नहीं। आगंतुक ने फिर कहा प्रणाम, महाराज! मैं अमुक हूं। 'उग्र'जी ने फिर दूसरी ओर करवट बदल ली, पर फिर कुछ बोले नहीं । हतप्रभ होकर वह व्यक्ति चुपचाप वहां से सरक गया ।”
दूसरी बार, १६५५-५६ में वे पटना सम्मलेन भवन में मेरे पिता से मिलने आये थे। उस बार, पहली बार, वहां उनके चरण स्पर्श का मुझे सुअवसर मिला था, लेकिन वे जब तक रहे बाबूजी के साथ ही बात-चीत में मशगूल रहे। उसके कुछ ही दिन बाद फरवरी, १६६१ में उनकी पुस्तक 'अपनी खबर' (उनकी आत्मकथा) राजकमल वालों ने बाबूजी के पास सम्मति के लिए भेजी तो पहले मैंने ही उसका पारायण कर लिया। बाबूजी ने फिर उस पर अपनी सम्मति भी राजकमल को भेजी। बाबूजी का वह पूरा पत्र यहां उद्धरणीय है।
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