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Vichar aur nirvichar

By: Contributor(s): Material type: TextTextPublication details: Bikaner Vagdevi 2008Description: 208 pISBN:
  • 9788187482727
Subject(s): DDC classification:
  • H 100 MAH
Summary: दर्शन के क्षेत्र में अद्वैतवाद और द्वैतवाद- -दो सिद्धांत प्रचलित हैं। अद्वैत के बिना एकता की और द्वैत के बिना अनेकता की व्याख्या नहीं की जा सकती। अद्वैत और द्वैत—दोनों का समन्वय ही विश्व की व्याख्या का समग्र दृष्टिकोण बनता है। चेतन और अचेतन में एकता के सूत्र भी पर्याप्त हैं। उनके आधार पर हम सत्ता (अस्तित्व) तक पहुंच जाते हैं। चेतन और अचेतन में अनेकता के सूत्र भी विद्यमान हैं। इस आधार पर हम सत्ता के विभक्तीकरण तक पहुंच जाते हैं। समन्वय एकता की खोज का सूत्र है, किंतु उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकता का अस्वीकार नहीं है। इसी आधार पर हम व्यक्ति और समाज की समीचीन व्याख्या कर सकते हैं। सामाजिक जीवन का मूल आधार सापेक्षता है। भौगोलिक सीमाओं से विभक्त होने पर भी सब मनुष्य एक ही समाज के अविभक्त अंग हैं। शरीर के अंगों की संस्थान रचना और कार्य प्रणाली जैसे भिन्न होती है, वैसे ही समाज के अंग-भूत मनुष्यों की संस्थान रचना और कार्य प्रणाली भिन्न होती है। भेद को ही सामने रखकर यदि एक अंग दूसरे से निरपेक्ष होता है, उसकी उपेक्षा करता है, तो अंगी स्वस्थ नहीं रहता। सह-अस्तित्व का अर्थ है मनुष्य के सोचने, करने तथा अपने ढंग से चलने की स्वतंत्रता में विश्वास या मैं या तुम यह विनाश का मार्ग है। विकास का मार्ग यह है कि में भी रहूं और तुम भी रहो।' मन की विषमता व्यावहारिक जगत में अनेक विषमताओं को जन्म देती है। व्यवहार और सिद्धांत की दूरी अवीतराग मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। बहुत लोग उस दूरी को पाटने का प्रयत्न ही नहीं करते। कुछ लोग उस दिशा में प्रयत्न करते हैं, पर लक्ष्य बिंदु तक पहुंचने में बहुत लंबा समय लग जाता है। आर्थिक विषमता मानसिक विषमता की एक निष्पत्ति है। समतावादी चेतना का विकास हुए बिना इस समस्या का समाधान संभव नहीं है।
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दर्शन के क्षेत्र में अद्वैतवाद और द्वैतवाद- -दो सिद्धांत प्रचलित हैं। अद्वैत के बिना एकता की और द्वैत के बिना अनेकता की व्याख्या नहीं की जा सकती। अद्वैत और द्वैत—दोनों का समन्वय ही विश्व की व्याख्या का समग्र दृष्टिकोण बनता है। चेतन और अचेतन में एकता के सूत्र भी पर्याप्त हैं। उनके आधार पर हम सत्ता (अस्तित्व) तक पहुंच जाते हैं। चेतन और अचेतन में अनेकता के सूत्र भी विद्यमान हैं। इस आधार पर हम सत्ता के विभक्तीकरण तक पहुंच जाते हैं। समन्वय एकता की खोज का सूत्र है, किंतु उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकता का अस्वीकार नहीं है। इसी आधार पर हम व्यक्ति और समाज की समीचीन व्याख्या कर सकते हैं।

सामाजिक जीवन का मूल आधार सापेक्षता है। भौगोलिक सीमाओं से विभक्त होने पर भी सब मनुष्य एक ही समाज के अविभक्त अंग हैं। शरीर के अंगों की संस्थान रचना और कार्य प्रणाली जैसे भिन्न होती है, वैसे ही समाज के अंग-भूत मनुष्यों की संस्थान रचना और कार्य प्रणाली भिन्न होती है। भेद को ही सामने रखकर यदि एक अंग दूसरे से निरपेक्ष होता है, उसकी उपेक्षा करता है, तो अंगी स्वस्थ नहीं रहता।

सह-अस्तित्व का अर्थ है मनुष्य के सोचने, करने तथा अपने ढंग से चलने की स्वतंत्रता में विश्वास या मैं या तुम यह विनाश का मार्ग है। विकास का मार्ग यह है कि में भी रहूं और तुम भी रहो।'
मन की विषमता व्यावहारिक जगत में अनेक विषमताओं को जन्म देती है। व्यवहार और सिद्धांत की दूरी अवीतराग मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। बहुत लोग उस दूरी को पाटने का प्रयत्न ही नहीं करते। कुछ लोग उस दिशा में प्रयत्न करते हैं, पर लक्ष्य बिंदु तक पहुंचने में बहुत लंबा समय लग जाता है। आर्थिक विषमता मानसिक विषमता की एक निष्पत्ति है। समतावादी चेतना का विकास हुए बिना इस समस्या का समाधान संभव नहीं है।

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