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Aganipath

By: Material type: TextTextPublication details: Bikaner Vaagdevi Prakashan 2009Edition: 1st edDescription: 167 pISBN:
  • 9788187482963
Subject(s): DDC classification:
  • H 891.4687109
Summary: हिन्दी में अब तक प्रकाशित दलित आत्म कथाओं से उत्तम कांबले की 'अगनपथ' इसलिए अलहदा है, क्योंकि अपने सघन सामाजिक सन्दर्भ के बावजूद यह एक व्यक्ति मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष चेतना, जुझारूपन और आत्मबल का सशक्त दस्तावेज बन पड़ी है। अपनी विशेष सामाजिक परिस्थितियों के चलते अत्यन्त विषण्ण मन के साथ शून्य से शुरू हुई कथा-नायक की जीवन यात्रा जिस उत्कर्ष पर समाप्त होती है, वह केवल उसकी भौतिक सफलता मात्र का नहीं वरन् अपने संघर्षों की आँच में तपी उसकी मनुष्यता का भी स्वर्ण-शिखर हो जाता है। इस आत्मकथा की एक अन्य विशेषता है इसके कथानायक की हां-धर्मी (Positive) जीवन दृष्टि। अपने कटु और दुर्दम्य सामाजिक परिवेश के बावजूद नायक जिस मानव-सांचे में ढलता हुआ अपना दुर्गम-पथ पार करता चलता है, उसमें किसी सामाजिक विद्वेष अथवा घृणा को कोई स्थान नहीं है। निश्चय ही इस कृति में उन पीड़ाओं का भी मार्मिक और विचलनकारी अंकन हुआ है, जिन्हें कथानायक भारतीय समाज में अपने दलित होने की विशेष परिस्थिति के कारण भोगता है, किन्तु उसकी चोट का निशाना वह मूढ़ता, अवैज्ञानिकता और जड़ता ही बनी रहती है जिसका समुच्चय मानवीय विभेद का मुख्य कारक तत्त्व होता है। यह एक कठोर संयम से परिपूर्ण अहिंसक जीवन-दृष्टि की ही परिणति है कि एक हिंस्र वृत्ति पर प्रहार करते हुए भी लेखक स्वयं उसका शिकार नहीं होता। इस कृति का कुल प्रभाव परिवर्तन की प्रबल प्रेरणा के साथ-साथ एक समरस मानव समाज की स्थापना की आकांक्षा- अपने आख्यान की तीव्र वेधकता और उच्चतर मार्मिकता के चलते का ही बना रहता है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि जैसा कि स्वयं कथानायक एक स्थान पर कहता है, 'मेरा एक व्यक्ति से समूह में रूपान्तरण हो चुका था।' उम्मीद हिन्दी में दलित आत्मकथा की इस 'दुर्लभ सिद्धि' का अवश्य स्वागत होगा।
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Books Books Gandhi Smriti Library H 891.4687109 (Browse shelf(Opens below)) Available 168078
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हिन्दी में अब तक प्रकाशित दलित आत्म कथाओं से उत्तम कांबले की 'अगनपथ' इसलिए अलहदा है, क्योंकि अपने सघन सामाजिक सन्दर्भ के बावजूद यह एक व्यक्ति मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष चेतना, जुझारूपन और आत्मबल का सशक्त दस्तावेज बन पड़ी है। अपनी विशेष सामाजिक परिस्थितियों के चलते अत्यन्त विषण्ण मन के साथ शून्य से शुरू हुई कथा-नायक की जीवन यात्रा जिस उत्कर्ष पर समाप्त होती है, वह केवल उसकी भौतिक सफलता मात्र का नहीं वरन् अपने संघर्षों की आँच में तपी उसकी मनुष्यता का भी स्वर्ण-शिखर हो जाता है।

इस आत्मकथा की एक अन्य विशेषता है इसके कथानायक की हां-धर्मी (Positive) जीवन दृष्टि। अपने कटु और दुर्दम्य सामाजिक परिवेश के बावजूद नायक जिस मानव-सांचे में ढलता हुआ अपना दुर्गम-पथ पार करता चलता है, उसमें किसी सामाजिक विद्वेष अथवा घृणा को कोई स्थान नहीं है। निश्चय ही इस कृति में उन पीड़ाओं का भी मार्मिक और विचलनकारी अंकन हुआ है, जिन्हें कथानायक भारतीय समाज में अपने दलित होने की विशेष परिस्थिति के कारण भोगता है, किन्तु उसकी चोट का निशाना वह मूढ़ता, अवैज्ञानिकता और जड़ता ही बनी रहती है जिसका समुच्चय मानवीय विभेद का मुख्य कारक तत्त्व होता है। यह एक कठोर संयम से परिपूर्ण अहिंसक जीवन-दृष्टि की ही परिणति है कि एक हिंस्र वृत्ति पर प्रहार करते हुए भी लेखक स्वयं उसका शिकार नहीं होता। इस कृति का कुल प्रभाव परिवर्तन की प्रबल प्रेरणा के साथ-साथ एक समरस मानव समाज की स्थापना की आकांक्षा- अपने आख्यान की तीव्र वेधकता और उच्चतर मार्मिकता के चलते का ही बना रहता है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि जैसा कि स्वयं कथानायक एक स्थान पर कहता है, 'मेरा एक व्यक्ति से समूह में रूपान्तरण हो चुका था।' उम्मीद हिन्दी में दलित आत्मकथा की इस 'दुर्लभ सिद्धि' का अवश्य स्वागत होगा।

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