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Maa, march aur mrityu

By: Material type: TextTextPublication details: Delhi Setu Prakashan 2019Edition: 1st edDescription: 175 pISBN:
  • 9788194091011
Subject(s): DDC classification:
  • H JAL
Summary: जब अधिकांश कहानियाँ किसी न किसी विमर्श या विचारधारात्मक पूर्व धारणाओं के परिप्रेक्ष्य में लिखी जा रही हों और इसी कारण-कई बार सदाशयता के बावजूद - कहानी की रचना-प्रक्रिया किसी कथानुभवात्मक संवेदना के अन्वेषण के बजाय किसी निश्चित प्रत्याशित निष्कर्ष को कलात्मकता की चाशनी में लपेट कर पाठक के गले उतार देना चाहती हो, शर्मिला जालान की कहानियाँ विमर्श-मुक्त संवेदना की कहन-प्रक्रिया की रचना करती लगती हैं। यों उनकी इन कहानियों में स्त्री-वाचक और स्त्री चरित्रों की प्रमुखता के आधार पर कोई उन्हें आसानी से स्त्री-विमर्श के खाँचे में अटा देने के लिए लालायित हो सकता है; लेकिन मुझे बतौर पाठक, यह लगता है कि ये कहानियाँ मूलत: जीने के अधूरेपन के अहसास की कहानियाँ हैं, ,जिनमें कहीं-कहीं पूरेपन की ओर ले जाते कुछ पल उस अधूरेपन की पीड़ा को और गहरा देते हैं – लेकिन बहुत संयत बल्कि अंडरस्टेटमेंट' की भाषा में । द्वंद्वात्मक बेकल मनःस्थिति की इतनी संयत अभिव्यक्ति शर्मिला के लेखन संयम का प्रमाण है। 'जिल्दसाज', 'अवसाद', 'विद्रोह' और 'चोर' जैसी कहानियाँ चालू मुहावरे से अलग हट कर लिखी गयी कहानियाँ हैं, जो लेखिका की भावी कहानियों के लिए आश्वस्तिमूलक प्रत्याशा जगाती हैं। 'मणिकर्णिका के आसपास', 'सुरमई', 'संताप' और 'एक अनकही कहानी' कुछ भिन्न प्रकार की हैं, लेकिन जीवन को मनचाहे ढंग से न जी पाने से उत्पन्न अधूरेपन का अहसास वहाँ गहराई से व्यंजित है- यह अधूरापन केवल स्त्री जीवन का नहीं, पुरुष-जीवन का भी है। इसीलिए, मैं इन्हें मानव जीवन के अधूरेपन का अन्वेषण मानता हूँ। मुझे विश्वास है कि शर्मिला जालान के पहले प्रकाशित संग्रहों की तरह ही ये कहानियाँ भी अपने पाठकों के संवेदना- संसार को और विस्तार दे सकने में बड़ी हद तक सफल हो सकेंगी।
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जब अधिकांश कहानियाँ किसी न किसी विमर्श या विचारधारात्मक पूर्व धारणाओं के परिप्रेक्ष्य में लिखी जा रही हों और इसी कारण-कई बार सदाशयता के बावजूद - कहानी की रचना-प्रक्रिया किसी कथानुभवात्मक संवेदना के अन्वेषण के बजाय किसी निश्चित प्रत्याशित निष्कर्ष को कलात्मकता की चाशनी में लपेट कर पाठक के गले उतार देना चाहती हो, शर्मिला जालान की कहानियाँ विमर्श-मुक्त संवेदना की कहन-प्रक्रिया की रचना करती लगती हैं। यों उनकी इन कहानियों में स्त्री-वाचक और स्त्री चरित्रों की प्रमुखता के आधार पर कोई उन्हें आसानी से स्त्री-विमर्श के खाँचे में अटा देने के लिए लालायित हो सकता है; लेकिन मुझे बतौर पाठक, यह लगता है कि ये कहानियाँ मूलत: जीने के अधूरेपन के अहसास की कहानियाँ हैं, ,जिनमें कहीं-कहीं पूरेपन की ओर ले जाते कुछ पल उस अधूरेपन की पीड़ा को और गहरा देते हैं – लेकिन बहुत संयत बल्कि अंडरस्टेटमेंट' की भाषा में । द्वंद्वात्मक बेकल मनःस्थिति की इतनी संयत अभिव्यक्ति शर्मिला के लेखन संयम का प्रमाण है। 'जिल्दसाज', 'अवसाद', 'विद्रोह' और 'चोर' जैसी कहानियाँ चालू मुहावरे से अलग हट कर लिखी गयी कहानियाँ हैं, जो लेखिका की भावी कहानियों के लिए आश्वस्तिमूलक प्रत्याशा जगाती हैं। 'मणिकर्णिका के आसपास', 'सुरमई', 'संताप' और 'एक अनकही कहानी' कुछ भिन्न प्रकार की हैं, लेकिन जीवन को मनचाहे ढंग से न जी पाने से उत्पन्न अधूरेपन का अहसास वहाँ गहराई से व्यंजित है- यह अधूरापन केवल स्त्री जीवन का नहीं, पुरुष-जीवन का भी है। इसीलिए, मैं इन्हें मानव जीवन के अधूरेपन का अन्वेषण मानता हूँ। मुझे विश्वास है कि शर्मिला जालान के पहले प्रकाशित संग्रहों की तरह ही ये कहानियाँ भी अपने पाठकों के संवेदना- संसार को और विस्तार दे सकने में बड़ी हद तक सफल हो सकेंगी।

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