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Bharatiya darshan evam sanskriti kosh

By: Contributor(s): Material type: TextTextPublication details: Jaipur Paradise Publishers 2021Description: 5Vol. (264p.; 257p.; 250p.; 240p.; 178p.)ISBN:
  • 9789388514040
Subject(s): DDC classification:
  • H 181.4 BHA
Summary: भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। वेद भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा-सा अंश है। वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद हैं। वेद भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह सकते। वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन स्त्रोतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार भी मिलते हैं। चिंतन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की वनराजियाँ विकसित हुई हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदि स्त्रोत मानते हैं। ये आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के अंतर्गत हैं जो दर्शन संप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र मानते हैं, वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचार धाराओं से प्रभावित हैं। स्मृति ग्रंथ लोक जीवन के आचार-विचार, धर्मशास्त्र, आश्रम, वर्ण, राज्य और समाज आदि परक अनुशासन का अंकन प्रस्तुत करते हैं। कुल मिलाकर इस समस्त वैदिक साहित्य में निर्गुण परम सत्ता की विद्यमानता मान्य थी। उसी परम सत्ता की दैवीय शक्ति प्रकृति के विभिन्न तत्वों में समाहित मानी जाती थी। परिवर्तन के साथ-साथ निरन्तरता भारतीय संस्कृति की विशिष्टता रही है। जहां एक और संस्कृति के दर्शन की मूल भावना निरंतर रही है वहीं संस्कृति उन तत्वों को लगातार बदलती रही हैं जो आधुनिक युग के अनुरूप नहीं रहीं। हमारे लंबे इतिहास में कई उतार-चढ़ाव आए, जिसके परिणामस्वरूप कई आंदोलन विकसित हुए और बदलाव लाए गए। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तन तथा आधानिक भारत में अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ नवजागरण ऐसे उदाहरण है जिनके द्वारा भारतीय चिंतन और व्यवहार में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। फिर भी आधारभूत दर्शन का सूत्र टूटा नहीं और जारी है। इस प्रकार निरंतरता और परिवर्तन का क्रम भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। यह हमारी संस्कृति की गतिशीलता का परिचायक है। हमारी भारतीय संस्कृति जैसी विविधता दुनिया की कम ही संस्कृतियों में पाई जाती है। हमारे देश में बोले जाने वाली भाषाओं और बोलियों की संख्या काफी है जो साहित्य को एक महान विविधता प्रदान करता है। दुनिया के आठ महान धर्मों के लोग यहां पर भाईचारे के साथ निवास करते हैं।
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भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। वेद भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा-सा अंश है। वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद हैं।

वेद भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह सकते। वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन स्त्रोतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार भी मिलते हैं। चिंतन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की वनराजियाँ विकसित हुई हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदि स्त्रोत मानते हैं। ये आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के अंतर्गत हैं जो दर्शन संप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र मानते हैं, वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचार धाराओं से प्रभावित हैं। स्मृति ग्रंथ लोक जीवन के आचार-विचार, धर्मशास्त्र, आश्रम, वर्ण, राज्य और समाज आदि परक अनुशासन का अंकन प्रस्तुत करते हैं। कुल मिलाकर इस समस्त वैदिक साहित्य में निर्गुण परम सत्ता की विद्यमानता मान्य थी। उसी परम सत्ता की दैवीय शक्ति प्रकृति के विभिन्न तत्वों में समाहित मानी जाती थी।

परिवर्तन के साथ-साथ निरन्तरता भारतीय संस्कृति की विशिष्टता रही है। जहां एक और संस्कृति के दर्शन की मूल भावना निरंतर रही है वहीं संस्कृति उन तत्वों को लगातार बदलती रही हैं जो आधुनिक युग के अनुरूप नहीं रहीं। हमारे लंबे इतिहास में कई उतार-चढ़ाव आए, जिसके परिणामस्वरूप कई आंदोलन विकसित हुए और बदलाव लाए गए। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तन तथा आधानिक भारत में अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ नवजागरण ऐसे उदाहरण है जिनके द्वारा भारतीय चिंतन और व्यवहार में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। फिर भी आधारभूत दर्शन का सूत्र टूटा नहीं और जारी है। इस प्रकार निरंतरता और परिवर्तन का क्रम भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। यह हमारी संस्कृति की गतिशीलता का परिचायक है। हमारी भारतीय संस्कृति जैसी विविधता दुनिया की कम ही संस्कृतियों में पाई जाती है। हमारे देश में बोले जाने वाली भाषाओं और बोलियों की संख्या काफी है जो साहित्य को एक महान विविधता प्रदान करता है। दुनिया के आठ महान धर्मों के लोग यहां पर भाईचारे के साथ निवास करते हैं।

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