Kavi-jeevan ke agyat paksh: Dinkar ke patra (Record no. 356540)

MARC details
000 -LEADER
fixed length control field 05155nam a22001937a 4500
003 - CONTROL NUMBER IDENTIFIER
control field OSt
005 - DATE AND TIME OF LATEST TRANSACTION
control field 20240909085200.0
020 ## - INTERNATIONAL STANDARD BOOK NUMBER
International Standard Book Number 9789357755306
082 ## - DEWEY DECIMAL CLASSIFICATION NUMBER
Classification number JP 891.43109 KAV
100 ## - MAIN ENTRY--PERSONAL NAME
Personal name Edited by Kanhaiyalal Fulfagar
9 (RLIN) 5525
245 ## - TITLE STATEMENT
Title Kavi-jeevan ke agyat paksh: Dinkar ke patra
260 ## - PUBLICATION, DISTRIBUTION, ETC.
Place of publication, distribution, etc. New Delhi
Name of publisher, distributor, etc. Vani
Date of publication, distribution, etc. 2024
300 ## - PHYSICAL DESCRIPTION
Extent 445p.
520 ## - SUMMARY, ETC.
Summary, etc. दिनकर के पत्र' एक संघर्षरत, संवेदनशील युवक की कहानी कहते हैं जिनमें संक्रमणकाल में घोर ग़रीबी से उठाकर, सारे परिवार का बोझा ढोते हुए, भीतर से टूट जाने पर भी उसने अन्तिम साँस तक जूझने की बान नहीं छोड़ी। विदेह की मिट्टी की उपज होने के कारण उसने भोग में ही योग को छिपा रखा था- 'योग भोग महँ राख्यो गोई'। शिवपूजन सहाय से सन् 1934 में प्रथम परिचय के क्षण से, महाप्रयाण (24 अप्रैल 1974) की वेला तक, चालीस वर्षों का यह आयाम साहित्य और राजनीति के विभिन्न उल्लासों एवं अन्तर्द्वन्द्वों को उद्घाटित करता है। शिवपूजन सहाय से सान्निध्य प्राप्त करने की चेष्टा, 'रेणुका' के प्रकाशन की योजना, माखनलाल जी से उसकी भूमिका लिखाने की व्यग्रता, बेनीपुरी की आत्मीयता, बनारसीदास चतुर्वेदी के साहचर्य से प्रकाशन का क्रम बनाये रखने की तत्परता, सब-रजिस्ट्रार की हिम्मत से जूझने की सन्नद्धता, नेशनल-वार-ग्नंट से दो बार इस्तीफा देने की आतुरता, 'अंग्रेज़ी सरकार द्वारा तीन वर्ष में 22 बार ट्रांसफर किये जाने की यातना और सबसे अधिक पारिवारिक विघटन के कारण भीतर ही भीतर टूटने की प्रक्रिया-एक यात्रा की हर्ष-विषाद-मिश्रित दास्तान हैं। बनारसीदास जी को लिखे पत्रों में मालूम पड़ता है कि सन् 1960 से ही उनके टूटने का क्रम चालू हो गया था। इस प्रकार लगभग 14 वर्ष, भीतर ही भीतर यह अन्तर्द्वन्द्व उन्हें मथता रहा। मधुमेह, रक्तचाप और सबसे अधिक 'उर्वशी' को पूर्ण करने की चिन्ता, अपने ज्येष्ठ पुत्र रामसेवक की असाध्य बीमारी से घबराकर 8-2-67 के पत्र में उन्होंने चतुर्वेदी जी को लिखा था -"पण्डित जी...सोचता हूँ, यह किस पाप का दण्ड है। भाइयों ने मुझे 1931 में बाँटकर अलग कर दिया, मगर बेटियाँ और बेटे मेरे माथे पर पटक दिये। मैंने भी शान्तभाव से उसे स्वीकार कर लिया..." अन्त में रामसेवक की असामयिक मृत्यु से तो वे टूट ही गये । दिनकर के पत्र प्रकाशित करने का यह अनुष्ठान इस दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है कि इसमें महाकवि के जीवन के अनेक विलुप्त सूत्र उपलब्ध हो जाते हैं। निश्चय ही दिनकर के पत्रों का यह संग्रह हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य थाती है। -इसी पुस्तक से
650 ## - SUBJECT ADDED ENTRY--TOPICAL TERM
Topical term or geographic name entry element Jnanpith Awardee (1972)- Ramdhari Singh 'Dinkar'
9 (RLIN) 5526
650 ## - SUBJECT ADDED ENTRY--TOPICAL TERM
Topical term or geographic name entry element Hindi letters
9 (RLIN) 5527
700 ## - ADDED ENTRY--PERSONAL NAME
Personal name Edited by Arvind Kumar Singh
9 (RLIN) 5528
942 ## - ADDED ENTRY ELEMENTS (KOHA)
Koha item type Books
Holdings
Withdrawn status Lost status Damaged status Not for loan Home library Current library Date acquired Cost, normal purchase price Total checkouts Full call number Barcode Date last seen Date last checked out Price effective from Koha item type
  Not Missing Not Damaged   Gandhi Smriti Library Gandhi Smriti Library 2024-09-09 950.00 1 JP 891.43109 KAV 180155 2024-11-22 2024-10-07 2024-09-09 Books

Powered by Koha