Summary, etc. |
दिनेश रावत द्वारा लिखी गई 'रवाँई के देवालय एवं देवगाथाएँ' शीर्षक पुस्तक उस क्षेत्र के 'लोक देवताओं' पर लिखी गई लेखक की पहली किताब का ही सिलसिला है। इसमें उक्त अंचल में भारतीयता की सार्वदेशिकता को देव स्थलों के माध्यम से पहचानने की कोशिश है। रवाँई उसके समतल सेरों, घनी मनालियों, नयनाभिराम बागवानों और नाचते-गाते लोगों के तीज-त्योहार, मेले-कौथिकों के लिए जाना जाता है। इसलिए उसे 'रैतिली रवाँई' कहा जाता है। पर्यटन के लिए वहाँ के गाँवों और रूपिन-सुपिन नदियों के जलाशयों की तरफ जाना चाहिए। यमुना और टोंस नदियों का दोआब वन खूबसूरती में अद्भुत है।<br/><br/>संवत् 2005 यानी आज से इकहत्तर वर्ष पहले का नारायण सिंह राणा का तैयार किया हुआ रवाँई परगने का नक्शा मिलता है, जिसमें जौनसार बावर का इलाका रवाँई में सम्मिलित नहीं दिखता। वस्तुतः ये तीनों पट्टियाँ एक ही लोक सांस्कृतिक धरातल की हैं। उनके देवता-दे के परिसर भी साझे हैं। नारायण सिंह राणा का नक्शा टिहरी रियासत के पालम में छपा है। वह एटलस उस समय के स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों और सरकारी अहलकारों के उपयोग के लिए सरकार द्वारा स्वीकृत किया गया था। तब समय की टिहरी गढ़वाल रियासत जौनपुर, उदेपुर, प्रतापनगर, उत्तरकाशी, चिल्ला- भिलंग, कीर्तिनगर-भरदार और चंद्रबदनी आदि जिन सात परगना में बंटी हुई थी, उसके पहले नंबर में रवाँई परिगणित था। उस समय जौनसार बावर ब्रितानी हुकूमत के भीतर आता था। इन दोनों अंचलों से लगा हुआ जौनपुर प्रशासनिक सहूलियत के लिए रवाँई से अलग रखा गया था। हकीकत यह है कि रवाँई, जौनपुर, जौनसार और बावर एक ही लोक सांस्कृतिक परिसर के मुलक हैं। इसलिए मैं इस पूरे इलाके का समेकित रूप से लोक सांस्कृतिक अध्ययन करने का पक्षपाती हूँ। ज्यादा विस्तृत क्षेत्र को लोक साहित्य, स्थापत्य, रहन-सहन और सामाजिक मान्यताओं का साझा गलियारा समझने के आड़े लेखकों की अपनी-अपनी सीमाएं व स्वार्थ आते हैं। अध्ययन का दायरा सीमित करने से उनकी मेहनत बचती है। छोटे-छोटे भू-खंडों को अध्ययन का विषय बनाने से प्रेक्षणा की बारीकियाँ सामने आनी चाहिए थी, पर ऐसा देखने में नहीं आ रहा। सर्वनिष्ठ सांस्कृतिक तत्वों को विस्तार से जानने की उपादेयता दूसरी ही होती है। आजकल बहुतायत में लिखी जा रही स्थानीय अध्ययनों की किताबों में लेखकों की यह तंग खंगाली मुझे खलती है।<br/><br/>सतरवें दसक तक वहाँ के लोक जीवन की न्यारी पहचान, संयुक्त परिवार, पशुपालन, खेती, स्वावलम्बी जीवन, संधारिणी ग्राम्य व्यवस्था अपनी मौलिक ठसक के साथ उपस्थित थी उसी भावना के अनुरूप थे वहाँ के त्यौहार, देवकाज, जातराएं, ब्याह-शादियाँ, मृतक संस्कार वगैरह। भूगोल और लोक के उस आयत फलक पर मुझे 'खस' संस्कृति की किरदारिता प्रत्यक्ष होती दिखती थी। गाँवों में शंख-घण्ट नहीं नौबत और परभात बजते थे। चातुर्मास को साझें भदियाले के धुएँ से घनीभूत होती थी । देवरियाँ, देवटुड़ी सैकड़ों वर्षों के सनातन सामाजिक आचार-व्यवहार के साथ कितनी ही मौसमी संस्कृतियों के मिश्रण को सूचित करते थे । वेश-भूषा, लाड-प्यार व्यक्त करने के रिवाज, स्त्रियों के आभूषण आदि तमाम इंगितों से मेरे मन में धारणा बनी कि वहाँ आर्य -जाति की 'खशिया' शाखा के लोग वहाँ के बाह्यागतों में अभी वैसे विलीन नहीं हुए जैसे कुमाऊँ में होने की प्रक्रिया में है। उपर्युक्त विवेचित अंचलों में उनकी एक नस्ल खूंदों की है दूसरी उन<br/><br/>ब्राह्मणों की जो सरोला, गंगाड़ी आदि ब्राह्मणों की तरह कम सल या असल की कुण्ठा नहीं पालते उनके ब्याह-काज के अपने रिवाज हैं। बारात के दिन दूल्हा घर में ही रहता है दुल्हन के स्वागत के लिए। लोग खूंदों से उन्नत, खानदानी खशिया कहे जाने पर गर्व का अनुभव करते हैं। जौनसारी कहावत में खूंदों की एक निचली श्रेणी भी है जिसे भोरा कहा जाता है। कहा गया है 'चिड़िया भूजें पोरा, नौकी भूजें दोरा, खौश भूजें भोरा' मुहावरा प्रश्न उठाता है कि चिड़िया में पंछी, लौकी में तुमड़ी और खशों में भोरा की भी कोई गिनती नहीं ठहरती है क्या ? मालूम पड़ता है खश, खूंद और भोंरा में विभाजित राजन्य जाति ब्राह्मण मानी जाती थी। कुमायूँ में 'खश-वामन' कहकर जिनके ऊपर बड़ी जातियों के बामन उंगली उठाते हैं, वे ब्राह्मण उक्त इन तीन पश्चिमांचलों में अकुण्ठ रूप से अपने जातीय वरीयता से जीते हैं। साठ-सत्तर के दसक तक बहुपति या संयुक्त पत्नी रखने का रिवाज खशों की तरह ब्राह्मणों में भी था। नौकरियों में रिजर्वेशन की शुरुआत से संयुक्त परिवारों का बिखराव शुरू हुआ। छोटे परिवार, एकल पत्नी, प्रवास आदि के साथ खेती और पशुपालन पर निर्भरता घटती गई और कस्बों, नगरों व मैदानों में बसने के आकर्षण के साथ गाँवों के बंजर होने की प्रक्रिया शुरू हुई।<br/><br/>सामाजिक बिखराव के दसकों के पहले विद्यमान तमाम मौलिक देशाचारों की तरह अलग-अलग जाती धड़ों और वहाँ के सांस्कृतिक समवायों के देवताओं की भीड़ में खशों और वहाँ के प्राक् निवासियों के देवताओं और उनके मंदिरों के स्थापत्य को पहचानना संभव है। मौजूद समाजों के अध्ययन के जरिये उनके पुराने मूल देव स्थलों के प्रबंधन के सूत्रों के सहारे वह पहचान बनती है जो राजपूत-खश और गैर राजपूत - खश-खूंदों भोंरा, खश-ब्राह्मणों और मंदिर निर्माण की कारीगरी की परंपरा की रक्षा करने वाले हुनरिये अन्त्यजों के सहकार पर चलता है। प्राक् वैदिक, वैदिक प्रणालियाँ, पौराणिक ब्राह्माणिक और सनातनी वैष्णव पद्धतियाँ देव स्थलों को अपने-अपने आच्छादनों से ढकती है, तब सार्वदेशिकता देखने में आती है।<br/><br/>वहाँ की पूजा-प्रणालियों का ढर्रा सामंतीय शासन-प्रणालियों की छायाओं का अनुगामी है। उनमें 'वजीर' जैसे पद नाम है तो 'पुजारी' जैसे अभिजन जाति-नाम भी। निचली जातियों के कामगार 'बाजगी' है तो पालकी उठाने वाले भी। 'ढाणी', 'मुलुक', 'औतारिया', 'माली' और पश्वाओं की अभिक्रिया सबके साथ रहती है। वे किसी भी धड़े के, किसी भी जाति के हो सकते हैं। • खशियों का वर्चस्व सबसे ऊपर है। ये सर्व-जातीय सम्मिश्रण की नहीं, सर्वजातीय सहकार की मिसालें हैं। ऐसी ही मिसाल के रूप में तमाम देवतायनों और उनके लोकतंत्र को देखना चाहिए। देवभूमि तो सभी की सुदूर अतीत में भी थी और वर्तमान में भी है। |