Siksha manovigyan

Rammoorthy

Siksha manovigyan v.1998 - Delhi Rastravani Prakashan 1998 - 247p.

पिछले पचास वर्षों में मनोविज्ञान ने अभूतपूर्व उन्नति कर ली है और मनुष्य के मानसिक जगत में घटित होने वाले नाना प्रकार के अद्भुत व्यापारों का पता इसकी सहायता से धीरे-धीरे लगता जा रहा है। सबसे बड़ी बात जो अभी तक ज्ञात हुई है, वह यह है कि मनुष्य एक स्वतंत्र सत्ता है और उसमें एक दृढ़ इच्छाशक्ति है। मनुष्य किसी निर्जीव लकड़ी का टुकड़ा नहीं है जिसे कोई काट-पीटकर चाहे जैसा बना दे। उसके भीतर एक ऐसी शक्ति होती है कि बाहर से पड़ने वाले प्रभावों को चाहे वे कितने ही बलशाली क्यों न हों, बेकार कर सकती है-वह चाहे तो उन प्रभावों को ग्रहण करे या न करे ।

विद्यालयों में पढ़ने वाले असंख्य विद्यार्थी स्वतंत्र इच्छा शक्ति ये मनुष्य हैं। हम लाख चाहें और यदि वे न चाहें तो हम उन्हें वह कुछ नहीं बना सकते, जो हम उन्हें बनाना चाहते हैं। शिक्षक पाठ्य-पुस्तकें, शिक्षण प्रणालियां और अनके नये-नये उपकरण उन सबके होते हुए भी शिक्षा का सारा कार्यक्रम व्यर्थ हो जायेगा, यदि विद्यार्थी उनसे लाभ उठाना नहीं चाहते ।

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार शिक्षा के उद्देश्यों को स्थिर करने की क्षमता मनोविज्ञान में ही है। शिक्षा का उद्देश्य है विद्यार्थी का सर्वागीण विकास अर्थात् छात्र की उन तमाम शक्तियों को उद्बुद्ध करना जो उसमें छिपी पड़ी हैं। विद्यार्थी को क्या बनाना है, यह शिक्षक के हाथ में नहीं है। शिक्षक को देखना यह है कि छात्र अपने सहज संस्कारों को लिए हुए क्या बन सकता है। इस प्रकार आज मनोविज्ञान ने शिक्षा को एक नयी दिशा की ओर मोड़ दिया है।

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