Bharat mein gramin apradh aur police ki bhumika

Kaalbhor, Gopinath

Bharat mein gramin apradh aur police ki bhumika v.1991 - New Delhi Saroop Prakashan 1991 - 100p.

प्रस्तुत ग्रन्थ, ग्रामीण पृष्ठभूमि पर व्याप्त सामाजि विसंगतियों को अपराध तथा न्याय के उत्पीड़न से उठे ज्वलन्त प्रश्नों को एवं इन अनुत्तरित प्रश्नों में पुलिस की भूमिका को उजागर करने के उद्देश्य से लिखी गई है।

पुस्तक में उन ग्रामीण क्षेत्रों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है जहाँ पुलिस के अनदेसेवन से अपराधी ना सिर्फ अपराध ही करते हैं बल्कि बार-बार अपराध करते हैं, संगीन अपराध करवाते हैं और मध्यस्थ बनकर समाज में अपराधों का नासूर बोते रहते हैं।

समाज में अपराध के ये नासूर रिसते रहते हैं और पुलिस व मध्यस्थ दोनों मिलकर अपराधियों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। इस तरह समाज में अपराध और अपराधी यथावत बने रहते हैं. उनको समाप्त करने में ना तो अदालतें सफल हो पाती हैं और ना ही पुलिस बस अपराध होते रहते हैं और ग्रामीण अपराध करवाने वालों के दुष्पचक्र में फंसते चले जाते हैं। इसी दुविधा को प्रकट करने हेतु ग्रन्थ के प्रणयन का उत्तरदायित्व लेखक को लेना पड़ा !

अपराध एवं अन्वेषण शाखा को प्रस्तुत ग्रन्थ के आधार पर अनुसंधान के नये रास्ते मिलेंगे ऐसी आशा है । समाज से अपराधों को समाप्त करने के लिए ग्रन्थ के रूप में डूबते को तिनके का सहारा पर्याप्त है। सुधि पाठक और न्याय, ग्रन्थ की वास्तविकताओं को जान यदि कुछ उपाय कर सकें तो मैं समझँगा कि ग्रन्थ का प्रणयन सार्थक हुआ। मेरे अनुभव की पिरोयी लड़ियाँ, समाज-विज्ञान के छात्रों, प्राध्यापकों एवं अनुसंधान के अध्येताओं को कुछ उपयोगी

सामग्री दे सकेगी, यह अपेक्षा है। पुस्तक को निम्न अध्यायों में विभाजित किया गया

१. अपराध और अपराध के प्रकार

२. भारतीय ग्राम एवं ग्रामीण समाज में अपराध ३. अपराधी दर्द से कराहते गांव

४. पहिचान खोते गांव

५. गांवों में बढ़ते सफेदपोश अपराधी और पुलिस
६. ग्रामीण क्षेत्रों में अपराध के तरीके

७. ग्रामीण अपराधियों का पुलिस से सम्पर्क

म. अपराध विघटन: कारण और निवारण १. ग्रामीण अपराध और पुलिस प्रशासन

१०. अपराधी अभिकर्ता और पुलिस नया समाजशास्त्रिय त्रिकोण

8185431094

H 363.2 KAL

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