Bhashavigyan ka itihaas
Jaiswal, Mahesh Prasad
Bhashavigyan ka itihaas - Bhopal Madhya Pradesh Hindi Grantha 1981 - 340 p.
'भाषाविज्ञान का इतिहास' प्रथम दृष्टि में तो बड़ा आकर्षक विषय लगता है परंतु शीघ्र ही इसके अटपटेपन और अल्पकता का अनुभव होने लगता है। विवाद केवल 'इतिहास' और 'गैर-इतिहास' पर ही नहीं स्वयं 'भाषाविज्ञान' और 'गैर-भाषा विज्ञान' पर भी है। क्या इतिहास है, क्या इतिहास नहीं है ? इस विषय के कितने अंत को इतिहास में लिया जाये और कितने को वर्तमान प्रवृत्तियाँ समझकर छोड़ दिया जाये ? इसी प्रकार क्या भाषाविज्ञान है और क्या भाषाविज्ञान नहीं है ? यह भी इस पुस्तक की लेखन प्रक्रिया में निरन्तर बना रहा। इतनी विशाल दुनियाँ में किन देश के भाषावैज्ञानिक aster को ass महत्व दिया जाये और किसको कम ? किसको सम्मिलित किया जाये और किसको छोड़ दिया जाये ? तथा इन सबका क्या आधार हो ? यदि सबको सम्मिलित किया जाये तो क्या यह एक पुस्तक को सोना में और एक व्यक्ति द्वारा सम्भव है ? ये सारे प्रश्न पुस्तक की रूपरेखा तैयार करते समय आड़े आते रहे। सायद यही कारण है कि अभी तक किसी भी देशी-विदेशी भाषा में 'भाषा विज्ञानका यात्रानिक भाषाविज्ञान का इतिहास जैसे ठेठ विषय पर एक अलग पुस्तक लिखने का प्रयास नहीं किया गया। इस विषय पर पुस्तकों में अध्याय ही मिलते हैं। जो पुस्तकाकार मिलते हैं ये सब वर्तमान प्रवृत्तियाँ', 'अधुनातन प्रवृत्तियाँ', 'मुख्य विशेषताएँ', 'तुलनात्मक स्थिति', 'सर्वेक्षण, 'अध्ययन कार्य' आदि शीर्षक के अन्तर्गत हैं। बाकायदा इतिहास लिखने का दावा किसी ने नहीं किया। यह दावा इस लेखक का भी नहीं हो सकता। इस पुस्तक का नाम 'भाषाविज्ञान की भूमिका और विकास' भी हो जाता तो उसे कोई कोई कोत न होती 'सर्वेक्षण', 'स्वल', ऐतिहासिक अध्ययन', "एक पन आदि चालू नाम देकर भी छुटकारा मिल सकता था । तथापि घोष के में 'इतिहास' भन्यतः इस मोह से रहने दिया गया है कि सुधी पाठक और विशेष इस दुस्साहस से चौक पर अविश्वासी दृष्टि से ही सही, इस प्रयत्न का मूल्यांकन करेंगे। शायद यह भी हो कि इतिहास लिखने से बचने को प्रवृत्ति में विराट और यह प्रयत्न आगे बढ़े।
H 410 JAI
Bhashavigyan ka itihaas - Bhopal Madhya Pradesh Hindi Grantha 1981 - 340 p.
'भाषाविज्ञान का इतिहास' प्रथम दृष्टि में तो बड़ा आकर्षक विषय लगता है परंतु शीघ्र ही इसके अटपटेपन और अल्पकता का अनुभव होने लगता है। विवाद केवल 'इतिहास' और 'गैर-इतिहास' पर ही नहीं स्वयं 'भाषाविज्ञान' और 'गैर-भाषा विज्ञान' पर भी है। क्या इतिहास है, क्या इतिहास नहीं है ? इस विषय के कितने अंत को इतिहास में लिया जाये और कितने को वर्तमान प्रवृत्तियाँ समझकर छोड़ दिया जाये ? इसी प्रकार क्या भाषाविज्ञान है और क्या भाषाविज्ञान नहीं है ? यह भी इस पुस्तक की लेखन प्रक्रिया में निरन्तर बना रहा। इतनी विशाल दुनियाँ में किन देश के भाषावैज्ञानिक aster को ass महत्व दिया जाये और किसको कम ? किसको सम्मिलित किया जाये और किसको छोड़ दिया जाये ? तथा इन सबका क्या आधार हो ? यदि सबको सम्मिलित किया जाये तो क्या यह एक पुस्तक को सोना में और एक व्यक्ति द्वारा सम्भव है ? ये सारे प्रश्न पुस्तक की रूपरेखा तैयार करते समय आड़े आते रहे। सायद यही कारण है कि अभी तक किसी भी देशी-विदेशी भाषा में 'भाषा विज्ञानका यात्रानिक भाषाविज्ञान का इतिहास जैसे ठेठ विषय पर एक अलग पुस्तक लिखने का प्रयास नहीं किया गया। इस विषय पर पुस्तकों में अध्याय ही मिलते हैं। जो पुस्तकाकार मिलते हैं ये सब वर्तमान प्रवृत्तियाँ', 'अधुनातन प्रवृत्तियाँ', 'मुख्य विशेषताएँ', 'तुलनात्मक स्थिति', 'सर्वेक्षण, 'अध्ययन कार्य' आदि शीर्षक के अन्तर्गत हैं। बाकायदा इतिहास लिखने का दावा किसी ने नहीं किया। यह दावा इस लेखक का भी नहीं हो सकता। इस पुस्तक का नाम 'भाषाविज्ञान की भूमिका और विकास' भी हो जाता तो उसे कोई कोई कोत न होती 'सर्वेक्षण', 'स्वल', ऐतिहासिक अध्ययन', "एक पन आदि चालू नाम देकर भी छुटकारा मिल सकता था । तथापि घोष के में 'इतिहास' भन्यतः इस मोह से रहने दिया गया है कि सुधी पाठक और विशेष इस दुस्साहस से चौक पर अविश्वासी दृष्टि से ही सही, इस प्रयत्न का मूल्यांकन करेंगे। शायद यह भी हो कि इतिहास लिखने से बचने को प्रवृत्ति में विराट और यह प्रयत्न आगे बढ़े।
H 410 JAI