Hindi, Urdu aur Hindustani
Sharma, Padam Singh
Hindi, Urdu aur Hindustani c.2 - 3rd ed. - Allahabad Hindustani 1951 - 152 p.
हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का झगड़ा कोई मौ बरम से चल रहा है, आज तक इसका फैसला नहीं हुआ कि इनमें से भाषा का कौन-सा रूप राष्ट्र भाषा समझा जाय और कौन-सी लिपि राष्ट्र-लिपि ठहरा ली जाय ।
हिन्दीवाले चाहते हैं कि ऐसी विशुद्ध भाषा का प्रचार हो जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का प्राचुर्य रहे, और यदि सरलता अपेक्षित हो तो विशुद्ध तद्भवों से ही काम लिया जाय; विदेशी भाषा के शब्दों का भरसक बहिष्कार हो, प्रत्युत जहाँ आवश्यकता विवश करे वहाँ संस्कृत से ही पारिभाषिक शब्द भी गढ़ लिये जायँ कुछ विशुद्धतावादियों के मत में तो 'लालटेन' का प्रयोग करना अशुद्धि के अन्धकार में पड़ना है, उसके स्थान में वह 'दीप मन्दिर' या 'हस्तकांचदीपिका' का प्रकाश अधिक उपयुक्त समझेंगे
उर्दू वाले नये-नये मुत्र और मुफ़रंस अलफ़ाज़ तक से गुरेज करते है और उनके बजाय अरबी और फ़ारसी की मुस्तनद जुग़ात से इस्तलाद्दात नौ-च-नौ से अपने तर्ज़-तहरीर में ऐसा तसन्नौ पैदा करते हैं कि उनका एक-एक फ़िक्करा 'ग़ालिब' के बाज़ मुश्किल मिसरे की पेचीदगी पर भी ग़ालिब आ जाता है और बसा चौकात अलफ़ाज़ की नशिस्त ऐसी होती है। कि जुमले के जुमले महज़ इतनी बात के मोहताज होते हैं कि खालिस फ़ारसी (जमी ) शक्ल अख्तियार करने में सिर्फ हिन्दी अफ़ाल को फ़ारसी अफ़वाल में तबदील कर दिया जाय और बस।
H 491.43 SHA 3rd ed
Hindi, Urdu aur Hindustani c.2 - 3rd ed. - Allahabad Hindustani 1951 - 152 p.
हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का झगड़ा कोई मौ बरम से चल रहा है, आज तक इसका फैसला नहीं हुआ कि इनमें से भाषा का कौन-सा रूप राष्ट्र भाषा समझा जाय और कौन-सी लिपि राष्ट्र-लिपि ठहरा ली जाय ।
हिन्दीवाले चाहते हैं कि ऐसी विशुद्ध भाषा का प्रचार हो जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का प्राचुर्य रहे, और यदि सरलता अपेक्षित हो तो विशुद्ध तद्भवों से ही काम लिया जाय; विदेशी भाषा के शब्दों का भरसक बहिष्कार हो, प्रत्युत जहाँ आवश्यकता विवश करे वहाँ संस्कृत से ही पारिभाषिक शब्द भी गढ़ लिये जायँ कुछ विशुद्धतावादियों के मत में तो 'लालटेन' का प्रयोग करना अशुद्धि के अन्धकार में पड़ना है, उसके स्थान में वह 'दीप मन्दिर' या 'हस्तकांचदीपिका' का प्रकाश अधिक उपयुक्त समझेंगे
उर्दू वाले नये-नये मुत्र और मुफ़रंस अलफ़ाज़ तक से गुरेज करते है और उनके बजाय अरबी और फ़ारसी की मुस्तनद जुग़ात से इस्तलाद्दात नौ-च-नौ से अपने तर्ज़-तहरीर में ऐसा तसन्नौ पैदा करते हैं कि उनका एक-एक फ़िक्करा 'ग़ालिब' के बाज़ मुश्किल मिसरे की पेचीदगी पर भी ग़ालिब आ जाता है और बसा चौकात अलफ़ाज़ की नशिस्त ऐसी होती है। कि जुमले के जुमले महज़ इतनी बात के मोहताज होते हैं कि खालिस फ़ारसी (जमी ) शक्ल अख्तियार करने में सिर्फ हिन्दी अफ़ाल को फ़ारसी अफ़वाल में तबदील कर दिया जाय और बस।
H 491.43 SHA 3rd ed