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020 _a8186684301
082 _aH 294.5 NAN
100 _aNandi,Ramendranath
245 0 _aPrachin bharat mein dharam ke samajik aadhar / tr. by Narendra Vyas
245 0 _n1998
260 _aDelhi
260 _bGrantha Shilpi
260 _c1998.
300 _a218 p.
520 _aप्रत्येक दार्शनिक परंपरा, चिंतनधारा और धार्मिक विश्वास अपने समय के सामाजिक-आर्थिक विकास का सहभागी होता है, इसलिए सामाजिक विकास और उसमें सक्रिय भौतिक शक्तियों के चरित्र को समझे बिना इनमें से किसी को भी समझना संभव नहीं है। इस पुस्तक में तीसरी सदी से बारहवीं सदी तक के दौर के धार्मिक विकास के सामाजिक आधारों की तलाश की गई है। इस अध्ययन के प्रथम चरण में गुप्तकाल तथाकथित स्वर्णयुग का ऐतिहासिक विवेचन किया गया है जब बड़े पैमाने पर नगरों का पतन हुआ। यह वह दौर है जिसमें जिंसों का उत्पादन गिरा और इस उत्पादन पर निर्भर रहनेवाले नगर के लोगों को जीविका के दूसरे रास्ते तलाशने को मजबूर होना पड़ा। इस प्रक्रिया में वीरान हुए नगरों को 'तीर्थस्थान' घोषित कर दिया गया और तीर्थयात्रा को बड़े पैमाने पर लोकप्रिय बनाया गया तथा इसे पवित्रता का दर्जा दिया गया। इस क्रम में वैश्यों और शूद्रों को पातक कहा गया तथा उनके पेशे को अधम कर्म का दर्जा दिया गया। लेकिन उनसे काम कराना और उनसे दानदक्षिणा लेना विधि और धर्म सम्मत माना गया। उनसे कहा गया कि कलियुग में दान करने से पुण्य होता है। सातवीं से दसवीं सदी के दौरान समाज का सामंतीय विकास इस स्वर्णयुग के बाद ही घटित होता है। इस दौर में कृषि उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी हुई। इससे आर्थिक रूप से मंदिरों का कायाकल्प हो गया और वे अधिशेष संग्रह के केंद्र बन गए। इसमें भक्ति आंदोलन और मठों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी। ग्यारहवीं-बारहवीं सदियों में कृषि-उत्पादन में इतनी वृद्धि हुई कि मरी हुई मुद्रा अर्थव्यवस्था में फिर से जान आ गई, बाजार जीवित हो उठे। इस पुस्तक में इन सारी बातों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
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