000 03436nam a2200181Ia 4500
999 _c52512
_d52512
005 20220804155713.0
008 200204s9999 xx 000 0 und d
020 _a8170553873
082 _aH 491.43 DWI
100 _aDwivedi, Mahavir Prasad
245 0 _aHindi bhasha
260 _aNew Delhi
260 _bVani Prakashan
260 _c1995
300 _a131 p.
520 _aयह हिन्दी की पहली पुस्तक है, जो हिन्दी के साथ भारतीय भाषाओं के आदिम स्रोतों की पड़ताल करती है । बाद में सुनीति कुमार चटर्जी आदि ने विस्तार से भारतीय भाषाओं के उद्भव और विकास पर विचार किया। द्विवेदीजी ने हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए उसके 'देशव्यापक भाषा' होने के पक्ष में जो तर्क और विचार उपस्थित किए हैं, राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित करने वालों के लिए उसका आज भी महत्त्व है अंग्रेजों का हिन्दी भाषा के प्रति क्या रुख था (और कमोबेश वह आज की सरकार का भी है), इसकी जानकारी इस पुस्तक में संकलित तीसरे लेख से मिलती है। अंग्रेजों का भारतीय भाषाओं से ठीक रिश्ता नहीं होने से, वे कभी कभी कितने हास्यास्पद हो जाते थे, इसका विवरण इस पुस्तक के चौथे लेख में है। भारत के अंग्रेजीदी लोगों की स्थिति आज उन्हीं अंग्रेजों की तरह है । इस संकलन का पांचवां लेख द्विवेदीजी द्वारा 1923 ई० में, कानपुर में, हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में दिया गया, वक्तब्य है, जो अपने-आप में ऐतिहासिक महत्त्व का है। द्विवेदीजी इस वक्तव्य मे प्रारम्भिक औपचारिकता और कानपुर शहर का परिचय देने के बाद ही विषय पर आते हैं और हिन्दी भाषा, हिन्दी साहित्य, मातृभाषा की महत्ता, हिन्दी में तमाम विषयों एवं विधाओं पर काम करने की जरूरत को बेहद प्रभावपूर्ण भाषा में प्रस्तुत करते हैं।
942 _cB
_2ddc