000 08071nam a2200157Ia 4500
999 _c45601
_d45601
005 20220802115723.0
008 200204s9999 xx 000 0 und d
082 _aH 361.3 SOT
100 _aBatham, Madhwaram
245 0 _aJansewa : kuch anuthe priyog
250 _a2nd ed.
260 _aKanpur
_bJansewa prakeshan
_c1991.
300 _a160 p.
520 _aदेश के स्वतन्त्रता आन्दोलन की समाप्ति के बाद सन् १६४६-४७ से लगभग २५-३० वर्षो तक मैनें अपना छोटा सा कारवार करते हुए भी अति रिक्त समय में, अपने आस-पास के मुहल्लों की गरीब तथा सामान्य जनता की जो निःस्वार्थ सेवाएं मुझसे बन पड़ीं कीं । इस सिलसिले में जनसेवा के जो भी नए-नए सफल प्रयोग मैने किए थे, इस पुस्तक में उन्हीं में से कुछ कार्यकलापों का संक्षिप्त में वर्णन किया गया है। देश व जनता के प्रति अपनी कुछ मामूली सी सेवाओं के बदले कुछ पाने का अधिकार रहते हुए भी मैंने यह निश्चय किया था कि मैं कभी भी कोई पद, चुनाव टिकट, पेंशन या किसी रूप में कोई लाभ किसी से नहीं मांगू गा । इसलिए मैं किसी प्रकार का कोई नेता या पदाधिकारी भी नहीं रहा। फिर भी न जाने किस प्रेम स्नेह के कारण जनता अपनी समस्याएं लेकर मेरे पास आती रहती थी और जितना भी सम्भव होता में उनकी समस्याओं का उचित निवारण किया करता था। इन गरीबों की समस्याओं को देखते हुए अक्सर में यह भी सोचता था कि यदि इनकी समस्याएं पैदा ही न हों या कम से पैदा हों, तो ये लोग अब से ज्यादा सुखी रह सकते है । मैंने इसी विचार को कार्यरूप देने का प्रयत्न किया । अतः यह निश्चय किया कि उनकी समस्याओं के कुछ सुलझाव डंडे जांय छुट्टी के दिन जब वे घर पर ही होते थे, यह कार्य शुरू किया "जन सम्पर्क द्वारा जनसेवा" कार्य जिस रूप में हुए उनका कुछ वर्णन इस गया। ये पुस्तक के परिच्छेद "सामाजिक सतसंग या छोटी-छोटी सामाजिक गोष्ठियों" में किया गया है। हालांकि इन गोष्ठियों में जितनी वार्ताएं हुई, उन सभी का वर्णन इस पुस्तक में नहीं हो पाया है, फिर भी इन गोष्ठियों के माध्यम से मुझे जनसम्पर्क का एक सरल तरीका मिल गया था जिसका उपयोग काफी सफल रहा। हमें विश्वास है कि गरीबों के सामाजिक उत्थान के लिए जो भी विषय लेकर हम उनके हृदय तक पहुँचाना चाहें, इस पद्धति द्वारा आमानी से बिना किसी खर्च के पहुंचा सकते हैं। इस समय सबसे आवश्यक जनसेवा कार्य "प्रौढ़ शिक्षा" का भी है जिसे "विद्यादान महादान है" मान कर सभी शिक्षित नागरिकों को अपने अपने स्तर पर तथा अपने अपने साधनों द्वारा कुछ समय जुटाकर करना चाहिए। इसी प्रकार भारत-चीन युद्ध में रोगनी बंदी के समय अपने क्षेत्र में बढ़ती हुई चोरियों को रोकने में पुलिस के सहयोग से चोरों, बदमाशों का जो स उपयोग किया गया था, आम लोगों को यह बात कुछ विचित्र सी लगेगी, लेकिन इसकी प्रेरणा मुझे दूसरे महायुद्ध से पहले, पढ़े हुए एक किस्से से मिली थी, जिसमें बताया गया था कि प्रथम महायुद्ध में योरप के एक बहुत ही छोटे से युद्धरत देश में जब सैनिकों की कमी पड़ गई तब उस देश ने अपने जेल के कैदियों को सैनिक शिक्षा का मामूली सा प्रशिक्षण देकर युद्ध में भेजा था. और ये कैदी युद्ध में बड़े उपयोगी साबित हुए थे। उस देश ने मनोवैज्ञानिक तरीकों से उन कैदियों की अच्छाइयां निकालकर देशहित में उनका उपयोग किया था। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी में भी यह विशेषता थी कि वे बुरे से बुरे व्यक्ति की अच्छाइयाँ निकालकर समाज के हित में उनका सद्-उपयोग कर लेते थे। वैसे भी हर बुरे व्यक्ति में बुराइयों के साथ-साथ कुछ अच्छा अवश्य होती हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति की अच्छाइया ढूंढ कर उनकी प्रा करते रहने से उसकी बुराइयां भी दूर की जा सकती है। इसके अलावा अन्य मसलों में भी जो सेवाकार्य हुए थे. उनका विवरण अन्य परिच्छेदों में दिया गया है। उन सब में सत्या के उपर विशेष बल दिया गया था। इनके अलावा बहुत सेवा भी हुए थे, जिनका विवरण मुझे अब याद नहीं है। देवदारही पुस्तक में लिखी जा सकी है।
942 _cB
_2ddc