000 12261nam a2200181Ia 4500
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082 _aH 370.1 BRA
100 _a Braubechar,John S
245 0 _aShiksha ki aadhunik darshan-dharayen
245 0 _nv.1969
260 _aNew Delhi
260 _bVegyanik tatha Takniki Sh
260 _c1969
300 _a393p.
520 _aपूर्व इसके कि जब 1939 में शिक्षा की आधुनिक दर्शन-धाराएं प्रेस के लिए मुश्किल से तैयार ही हो पाई थी कि इसके लेखक को यह मालूम होने लगा कि इस पुस्तक का किस प्रकार प्रवर्धन किया जाए और इसमें विस्पष्टता लायी जाए। उस समय के बाद के दशक में इसके लेखक के मन में अन्य कुछ सुझाव आए और सौभाग्यवश अन्य व्यक्तियों को भी ऐसी कुछ बातों की सूझ हुई जिन्होंने उन्हें अपने सौरव से प्रयोगार्थ उसे अर्पित कर दिया । लेखक को इस संशोधित संस्करण में इन सुझावों का समावेश कर कर लेने में प्रसन्नता है । मुख्य परिवर्तन तीन नये अध्यायों के जोड़े जाने में किया गया है यथा - अध्याय 3 मानव प्रकृति का स्वभाव; अध्याय 4 व्यावसायिक नैतिकता और आध्याय 15 शिक्षा की धाराओं के बीच मन शैक्षणिक मनोविज्ञान के दार्शनिक पक्ष और व्यक्ति, समाज एवं शिक्षा एन विषयों के दो पुराने अध्याय हटा दिए गए हैं। पहले का 'मानव प्रकृति का स्वभाव' इस अध्याय में समावेश कर दिया गया है और दूसरे के वर्ण्य विषयक कुछ अंश उसी नए अध्याय में तथा अब 'राजनीति और शिक्षा के अध्याय में मिला दिए गए हैं, एवं जो विषय सीमा की दृष्टि से पहले संस्करण की अपेक्षा कुछ बढ़ गया है। व्यावसायिक नैतिकता के नए अध्याय को, यद्यपि यह छोटा है, किसी ऐसे विषय के बारे में अपेक्षित दार्शनिक वाद-विवाद का स्थान पूरा करना चाहिए, जिसे सामान्यतः कई एक सैद्धान्तिक निर्देशनों के रूप में माना जाता है। शैक्षणिक दर्शनों में पाए गए विचारों को 14 अध्यायों में स्पष्टत निरूपित किये जाने के बाद असावधान पाठक सम्भवतः यह सोचेगा कि शैक्षणिक दर्शनों में देखा गया सम्भ्रम और विरोध केवल मात्र शैक्षणिक दर्शनों में ही व्यापक है, जब कि हम देखते हैं कि इनमें वस्तुतः सहमति का आशाजनक क्षेत्र है । इन नये अध्यायों के अतिरिक्त पुराने संस्करण के आधे से अधिक अध्यायों को फिर से लिखा गया है और बाकी के कुछ अध्यायों का व्यापक रूप से संशोधन किया गया है। सन्दर्भ ग्रन्थ-सूचियों को अद्यावधिक रा गया है और कई एक विपदको जो पहले सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची में दिये गए थे उन्हें पाद-टिप्पणियों के रूप में दर्शाया गया है। पुस्तक में सर्वव पारिभाषिक शब्दावली को सरल करने का प्रयत्न किया गया है और साथ ही सैद्धान्तिक विषयों को स्पष्ट करने के लिए व्यावहारिक उदाहरणों की संख्या में वृद्धि कर दी गयी है। दर्शन के विभिन्न पक्षों या पहलुओं के बीच पारस्परिक सम्बन्धों को सूचित करने के लिए अन्योन्याति सन्दर्भों की संख्या बढ़ा दी गई है। अन्ततः पहले की अपेक्षा प्रत्येक अध्याय में अधिक उप-विभाग रखे गए हैं, जो परिवर्तित रूप में पुस्तक के पठन-पाठन के लिए बहुत अधिक सहायक होंगे। इन परिवर्तनों के होते हुए भी यह पुस्तक यथार्थतः वही है। फिर भी इसका मुख्य प्रयोजन शिक्षा की प्रमुख समसामयिक दर्शन धाराओं का तुलनात्मक अध्ययन ही है। पहले दस वर्षों की अपेक्षा आजकल इस प्रकार की प्रस्तुति का महत्त्व कहीं अधिक है। शैक्षणिक दर्शन की गतिविधि के लिए बीसवीं शताब्दी का पहला आधा भाग एक अभूतपूर्व अवधि है। शैक्षणिक इतिहास के सम्बन्ध में इस क्षेत्र में पहले कभी इतना अधिक नहीं लिखा या प्रकाशित किया गया है। इसका कारण ढूंढ निकालने के लिए कहीं दूर न जाना होगा । शिक्षा का उद्देश्य आज अधिक अस्पष्ट है राजनीतिक और आर्थिक सिद्धान्तों के लोगों को विभिन्न सिद्धान्तों के दौक्षणिक उलझनों के बारे में नवीभूत उत्साह से सोचने के लिए बाध्य किया। इसके अतिरिक्त आधुनिक विज्ञान ने, विशेषतः मनोविज्ञान और जीवविज्ञान ने इस प्रकार की बौद्धिक क्रान्ति को जन्म दिया जिससे शिक्षाशास्त्री इसके शैक्षणिक परिणामों को सोचने के लिए अनिवार्यतः प्रेरित किए गए। ये उत्तेजक घटनाएं जितनी अधिक उलझाने वाली वो उतनी अधिक उतावली से लोग अपनी समस्याओं के स्पष्ट उत्तर पाने के लिए दर्शन शास्त्र की ओर झुके वस्तुतः दर्शन-शास्त्र ने प्लूटो के समय से शिक्षा के क्षेत्र में इतना अधिक महत्त्वपूर्ण भाग नहीं लिया है। कुछ भी हो, आजकल ऐसे बहुत से शिक्षा शास्त्री मिलेंगे जो चौराहों पर खड़े व्यक्तियों को उचित मार्ग प्रदर्शन करते हैं। तथापि, उनके निजी सुझावों ने निश्चयात्मक रूप से अधिक मात्रा में उलझन पैदा कर दी है। इस कारण पहले की अपेक्षा यह अधिक आवश्यक है कि हम शिक्षा दर्शन तक तुलनात्मक मे पहुँचें ताकि हम यथार्थ यह देख सके कि हम कहाँ है, हमारे विकल्प हैं और वे हमें कहते जायेंगे। 'शिक्षा की आधुनिक दर्शन-धारा के प्रथम संस्करण में नवीन सामग्री जुटाने और उसे नवीन व्यवस्था का रूप देने में लेखक उन सबके प्रति अपने सम्मानसूचक आभार को प्रकट करना चाहता है, जिन्होंने इसके सुधार के लिए विभिन्न सुझाव दिये शिक्षा दर्शन मय जो इस पुस्तक का अन्तिम अध्याय है, उसके समधिकरूप एवं वयं के लिए क दर्शन शिक्षा समाज के सदस्यों का विशेषतः इसी सहमति समिति का आभारी है, जिनके साथ गत कई वर्षों तक उसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ समिति घटन लुई एन्ट्ज, जॉर्ज ऐक्सटेले, केनेथ बेन, फादर विलियम कनिंघम, रेमॉन्ड मैक्काल और मौरिस रोलैंड द्वारा घटित इस समिति के विवेकशील चिन्तन ने इस पुस्तक को अमूल्य सहायता दी है जिससे वह इस कठिन व दुरूह क्षेत्र में सापेक्ष महत्त्व प्राप्त करने के योग्य बना है। तथापि, यह अध्याय उस समिति का प्रतिवेदन नहीं है, अतः लेखक को इस पुस्तक में पाई गई त्रुटियों के बारे में की गई समालोचना का प्रहार सहन करना होगा, क्योंकि उनके लिए उसी का दायित्व है।
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