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082 _aH 954 SHA
100 _aShambhunath
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245 _aItihas Mein Afwah : Uttar-Aadhunik Sankat Se Gujarate Hue
260 _aNew Delhi
_bVani Prakashan
_c2024
300 _a352 p.
520 _a21वीं सदी में भारत अतीत की युद्धभूमि है। एक अनोखे भय, सामाजिक विभाजन और अजनबीपन से मानवता फिर घिर गई है। अतीत की खाइयों में आई इस रौनक को कहीं पुनर्जागरण कहा गया है, कहीं विपर्यय। इसका ज्यादा असर कलाओं, इतिहासबोध और मानवीय संवेदनशीलता पर है। इस परिघटना को समझने के लिए न सिर्फ उत्तर-आधुनिक विमर्शों पर पुनर्विचार जरूरी है, बल्कि आधुनिक महा-आख्यानों से भी आगे बढ़कर सोचना समय की मांग है। हमें नए विचारों की जरूरत है। समाज में 'संवेदनशीलता का संकट' आज चरम पर है। यह उत्तर-आधुनिक वैचारिक खोखलेपन की देन है। अब वे क्षमतावान हैं जो उदार न होकर पोस्ट-मॉडर्न हैं। सभी रंगों के उत्तर-आधुनिक विमर्श, जिनमें नव-धार्मिक विमर्श भी हैं, कट्टर पोस्ट-मॉडर्न हैं। इनमें आधुनिकता के प्रमुख तत्वों-बुद्धिपरकता, समावेशी राष्ट्रीयता, लोकतांत्रिक चेतना और प्रगतिशील सोच का ही विरोध नहीं है, मानवीय मूल्यों से भी किनाराकशी है। अपनी दृष्टि के स्तर पर आधुनिक हुए बिना उत्तर-आधुनिक होने का अर्थ समाज को पुरानी कट्टरताओं के अखाड़े में बदलना है। ऐसी घड़ियों में 'बहुलता' की प्रतिष्ठा न्यायपूर्ण सामंजस्य में न होकर निर्बुद्धिपरक अंतर्शत्रुताओं में होती है और एक सांस्कृतिक गृहयुद्ध की स्थिति आ जाती है, जिसकी कोई भी परिणति हो सकती है। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है, यदि 'एलीट बुद्धिजीवी' और 'लोक' आज विपरीत ध्रुव पर हैं। लोकतंत्र के दुरुपयोग और अति-राजनीतिकरण का इससे भिन्न नतीजा नहीं हो सकता कि लोग बड़े पैमाने पर 'आधुनिक प्रिमिटिविज्म' की ओर आकर्षित हों। लोग सोचने लगे हैं कि अब नागरिक समाज नहीं, उनका धार्मिक, जातिवादी या प्रांतीय समुदाय उनके लिए छत है। साहित्य किसी युग में सत्ता के पीछे नहीं चला है। ज्ञान की दुनिया में यह उसकी विशिष्टता है। वस्तुतः साहित्यिक श्रेष्ठता और बौद्धिक स्वतंत्रता के बीच गहरा संबंध है । साहित्य का काम है मनुष्य के दृष्टिकोण, सौंदर्यबोध और भाव जगत का प्रसार करना । उसमें कृत्रिम 'पर’ के लिए जगह नहीं होती । स्थानीयता और अखंडता के बीच अंतर्विरोध नहीं होता। यही वजह है कि साहित्य किसी एक इतिहास का होकर भी उस इतिहास का, एक संस्कृति का होकर भी उस संस्कृति का और किसी खास राजनीति का होकर भी उस राजनीति का अतिक्रमण करता है। उसमें निश्छल असहमति होती है। वह 'पोस्ट-टुथ' जैसी चीजों का जवाब तभी बन पाता है। वह ताकत की भाषाओं द्वारा दवाई गई मनुष्यता की आवाज भी तभी बनता है। साहित्य वफादार मस्तिष्क की जगह विद्रोही मस्तिष्क की रचना है।
650 _aBhartiya Sahitya
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