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245 _aBerojgari ka chhatra
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520 _aप्रकृति हमें सृजित करती है और मनुष्य बनने में अहम भूमिका निभाती है । हम इससे सम्बद्ध रहकर ही अपनी मनुष्यता का फ़लक ऊँचा रख सकते हैं और लिख सकते हैं संघर्ष और इश्क़ की इबारतें। प्रो. मनु के नये संग्रह बेरोज़गारी का छतरा की कविताओं का यही मूल स्वर है और अपने इस मूल स्वर के ज़रिये वे अपनी दृष्टि और संवेदना का जो परिचय देते हैं, वह अपने अर्थबोध में गहरा प्रभाव डालता है । ‘परिन्दा इन्सान की तरह/पौधा नहीं लगाता है/ मगर इन्सान से कई गुना / ज़मीन को बचाते हुए / जंगल बसा देता है'... तब भी हम जंगल काटते जा रहे और संकट में डाल रहे न सिर्फ़ मानव बल्कि पंछियों की तरह जाने कितने जीवों को। इसलिए कवि कामना करता है कि कोई 'लौटा दे हमें अपना बचपन' जहाँ पहाड़, नदियाँ, जंगल, बारिश की तरह बहुत - बहुत कुछ शेष । इस आधुनिक दुनिया में कवि की एक बड़ी चिन्ता यह भी है कि आबादी की आज जो मैराथन दौड़ है, यह ख़तरे से ख़ाली नहीं, इससे सुविधाएँ तो कम पड़ती ही हैं, विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे में बदहाली और बेरोज़गारी का जो दौर शुरू होता है, वह भूख और भविष्य दोनों को निगलने लगता है । अनपढ़ ही नहीं, जो पढ़े-लिखे वे भी लम्बी क़तारों में खड़े नज़र आने लगते हैं, नज़र आने लगता है हर ओर बेरोज़गारी का छतरा । पलायन की टीस अपनों को रह-रहकर बेचैन करने लगती है । रोटी की तलाश में गया युवक ट्रेन हादसे का शिकार होता है और 'लाशों के ढेर में, दूर से आया बूढ़ा / अपने बेटे को तलाशता है' और 'वह हर लाश को अश्क-भरी आँखों से/ताकते हुए / आगे बढ़ जाता है', ढूँढता रहता है ।
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