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_aDwivedi, Pramod _911253 |
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245 | _aPilkhuwa ki jahanara va anya kahaniyan | ||
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_aNew Delhi _bVani _c2025 |
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300 | _a168p. | ||
520 | _aमेरी स्मृति में तीन कथाकार उभरते हैं, जिन्हें अपनी रचनाएँ लगभग कण्ठस्थ रहती थीं। एक तो स्वर्गीय शरद जोशी, जिन्हें अपना कथेतर गद्य भी याद रहता था और अपनी लोकप्रियता में वे मंच-कवियों से बराबरी की होड़ लेते थे। दूसरे थे ब्रजेश्वर मदान, जिन्हें इन्तज़ार हुसैन ने दक्षिण एशिया का महान कथाकार माना था और अमृता प्रीतम ने लिखा था कि उनकी कहानी का एक-एक अक्षर पढ़ते हुए, उसके दर्द से उनके नर्क्स बिखरने-टूटने लगते थे। और तीसरे हैं प्रमोद द्विवेदी। उनसे मिलना हर बार एक कहानी के पाठ से मुलाक़ात होती है। कण्ठस्थ कथा के कथाकार। अन्दाज़ा लगायें वे किस क़दर हर पल अपने समूचे अस्तित्व के साथ कहानी में निमग्न एक सच्चे कथाकार हैं। पढ़कर देखें या उनसे मिलकर उनसे सुनें। किसी निश्छल शिशु के उत्साह और ऊर्जा से भरपूर कहानियाँ आपको घेर लेंगी। —उदय प्रकाश ★★★ प्रमोद द्विवेदी ने देर से कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, लेकिन बहुत जल्द ही सबका ध्यान अपनी ओर खींचने में कामयाब रहे। यथार्थवाद के नाम पर लगभग नीरस वर्णनात्मकता में बदली हुई हिन्दी कहानी की मुख्यधारा में उनका प्रवेश एक ताज़ा हवा की तरह होता है। उनके पास कमाल की क़िस्सागोई है। इस क़िस्सागोई में घटनाओं और किरदारों पर बहुत बारीक़ नज़र रखने की प्रवृत्ति और उन्हें ठीक से कहानी में पिरो सकने का हुनर शामिल है। लेकिन ये कहानियाँ बस दिलचस्प नहीं हैं, इनमें हल्का सा उतरते ही इनके भीतर सामाजिक विडम्बनाओं की बहुत सारी परतें खुलती दिखाई पड़ती हैं। ये कहानियाँ हमारी जातिगत सामाजिक संरचना की विसंगतियों और हमारी यौन कुण्ठाओं पर ख़ास तौर पर प्रहार करती हैं। व्यंग्य और बतकही की हल्की तराश इन कहानियों को एक अलग तेवर और धार देती है। | ||
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