000 04663nam a22002177a 4500
003 OSt
005 20250423105238.0
008 250423b |||||||| |||| 00| 0 eng d
020 _a9789362874115
040 _cAACR-II
082 _aH 891.4 MIS
100 _aMisher, Harishchandra
_910149
245 _aLokasahitya ka koprakash: siddhant evam vyavahar
260 _aNew Delhi
_bVani
_c2024
300 _a389p.
520 _aऔसत बुद्धि लोक और शास्त्र को परस्पर विरोधी के रूप में देखती है। लोक में क्या नहीं आता? ‘समस्त' है लोक में, यहाँ तक कि ‘इहलोक' और ‘परलोक' भी। नागरता के अभिमान का चश्मा भाषा के मूल स्रोत को अमेरिकी ‘फोक’ के रूप में देखता है। इसीलिए उसकी समझ में भाषाओं के विकास की यह प्रक्रिया नहीं आती कि जब साहित्य की भाषा अपने समय की चेतना का वाहक बनने का सामर्थ्य खो देती है तब रचनाकार लोकभाषा के शब्दों की ओर आकृष्ट होते हैं। वे शब्द लोकसंवेदना से प्रत्यक्ष रूप में जुड़े होते हैं, इसीलिए साहित्य में स्वीकृत होते चले जाते हैं। दो-ढाई सौ वर्षों के बाद यही प्रक्रिया पुनः घटित होती है। यही भाषाओं के विकास की प्रक्रिया है। —रामदेव शुक्ल ★★★ आज समग्र यूरोप और अमेरिकाव्यापी लोकसाहित्य का जो इतना व्यापक अनुशीलन दिखाई देता है, उसके मूल में भी वृन्दावन गाँव के विछोह की वेदना है। किन्तु नागरिक समाज में लोकसाहित्य के प्रति जो अनुराग दिखाई दिया है, वह वैज्ञानिक दृष्टिभंगी द्वारा नियन्त्रित नहीं है। इसीलिए इसमें थोड़ी-थोड़ी कृत्रिमता आ गयी है। संहत सामाजिक जीवन द्वारा निर्वासित होने के कारण नागरिक समाज की समष्टि या समाज के सम्बन्ध में और कोई दायित्व नहीं रह जाता। लोकसाहित्य का क्रम विकास एक विशिष्ट धारा के भीतर से सम्भव हुआ है। उस धारा के साथ ग्राम्य समाज परिचित था। यहाँ तक कि एक प्रकार से कहा जा सकता है कि वह धारा ग्राम्य संहत सामाजिक जीवन में ही निहित थी। किन्तु उसके साथ नागरिक समाज से परिचित होने की बात होती है। उसी कारण लोकसाहित्य किसी-किसी क्षेत्र में एक प्रकार से नागरिक रूप प्राप्त कर सका है। कहना न होगा कि इसी कारण अनेक क्षेत्रों में ही यह कृत्रिम मालूम होने लगा है। जो लोक लोकसाहित्य की आलोचना करते रहते हैं, वे भी अनेक समय लोकसाहित्य की रचना करने के लिए दायी होते हैं।
650 _aLiterature-Hindi
_910150
650 _aModern Indic Literature- Loksahitya
_910151
710 _aSao, Pawan ed.
_910152
942 _2ddc
_cB
999 _c358118
_d358118