000 05155nam a22001937a 4500
003 OSt
005 20240909085200.0
020 _a9789357755306
082 _aJP 891.43109 KAV
100 _aEdited by Kanhaiyalal Fulfagar
_95525
245 _aKavi-jeevan ke agyat paksh: Dinkar ke patra
260 _aNew Delhi
_bVani
_c2024
300 _a445p.
520 _aदिनकर के पत्र' एक संघर्षरत, संवेदनशील युवक की कहानी कहते हैं जिनमें संक्रमणकाल में घोर ग़रीबी से उठाकर, सारे परिवार का बोझा ढोते हुए, भीतर से टूट जाने पर भी उसने अन्तिम साँस तक जूझने की बान नहीं छोड़ी। विदेह की मिट्टी की उपज होने के कारण उसने भोग में ही योग को छिपा रखा था- 'योग भोग महँ राख्यो गोई'। शिवपूजन सहाय से सन् 1934 में प्रथम परिचय के क्षण से, महाप्रयाण (24 अप्रैल 1974) की वेला तक, चालीस वर्षों का यह आयाम साहित्य और राजनीति के विभिन्न उल्लासों एवं अन्तर्द्वन्द्वों को उद्घाटित करता है। शिवपूजन सहाय से सान्निध्य प्राप्त करने की चेष्टा, 'रेणुका' के प्रकाशन की योजना, माखनलाल जी से उसकी भूमिका लिखाने की व्यग्रता, बेनीपुरी की आत्मीयता, बनारसीदास चतुर्वेदी के साहचर्य से प्रकाशन का क्रम बनाये रखने की तत्परता, सब-रजिस्ट्रार की हिम्मत से जूझने की सन्नद्धता, नेशनल-वार-ग्नंट से दो बार इस्तीफा देने की आतुरता, 'अंग्रेज़ी सरकार द्वारा तीन वर्ष में 22 बार ट्रांसफर किये जाने की यातना और सबसे अधिक पारिवारिक विघटन के कारण भीतर ही भीतर टूटने की प्रक्रिया-एक यात्रा की हर्ष-विषाद-मिश्रित दास्तान हैं। बनारसीदास जी को लिखे पत्रों में मालूम पड़ता है कि सन् 1960 से ही उनके टूटने का क्रम चालू हो गया था। इस प्रकार लगभग 14 वर्ष, भीतर ही भीतर यह अन्तर्द्वन्द्व उन्हें मथता रहा। मधुमेह, रक्तचाप और सबसे अधिक 'उर्वशी' को पूर्ण करने की चिन्ता, अपने ज्येष्ठ पुत्र रामसेवक की असाध्य बीमारी से घबराकर 8-2-67 के पत्र में उन्होंने चतुर्वेदी जी को लिखा था -"पण्डित जी...सोचता हूँ, यह किस पाप का दण्ड है। भाइयों ने मुझे 1931 में बाँटकर अलग कर दिया, मगर बेटियाँ और बेटे मेरे माथे पर पटक दिये। मैंने भी शान्तभाव से उसे स्वीकार कर लिया..." अन्त में रामसेवक की असामयिक मृत्यु से तो वे टूट ही गये । दिनकर के पत्र प्रकाशित करने का यह अनुष्ठान इस दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है कि इसमें महाकवि के जीवन के अनेक विलुप्त सूत्र उपलब्ध हो जाते हैं। निश्चय ही दिनकर के पत्रों का यह संग्रह हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य थाती है। -इसी पुस्तक से
650 _aJnanpith Awardee (1972)- Ramdhari Singh 'Dinkar'
_95526
650 _aHindi letters
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700 _aEdited by Arvind Kumar Singh
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942 _cB
999 _c356540
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