000 | 03439nam a22001697a 4500 | ||
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999 |
_c346952 _d346952 |
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003 | 0 | ||
005 | 20220902103354.0 | ||
020 | _a9789387774100 | ||
082 |
_aH 491.43 _bTRI |
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100 | _aTripathi, Triyambak Nath | ||
245 | _aBhasha Vigyan Kosh | ||
260 |
_aNew Delhi _bShivank Prkashan _c2022. |
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300 | _a188 p. | ||
520 | _aभाषा का विषय जितना सरस और मनोरम है, उतना ही गंभीर और कौतूहलजनक भाषा मनुष्यकृत है अथवा ईश्वरदत्ता उसका आविर्भाव किसी काल विशेष में हुआ, अथवा वह अनादि है। वह क्रमशः विकसित होकर नाना रूपों में परिणत हुई, अथवा आदि काल से ही अपने मुख्य रूप में वर्तमान है। इन प्रश्नों का उत्तार अनेक प्रकार से दिया जाता है। कोई भाषा को ईश्वरदत्ता कहता है, कोई उसे मनुष्यकृत बतलाता है। कोई उसे क्रमशरू विकास का परिणाम मानता है, और कोई उसके विषय में यथा पूर्वमकल्पय का राग अलापता हैं। भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया, केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, पर किसी भी पिछली जाति ने एक धातु भी नया नहीं बनाया। हम एक प्रकार से वही शब्द बोल रहे हैं, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुँह से निकले थे। जैक्सन डेविस कहते हैं- भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदिम है। श्श्भाषा के मुख्य उद्देश्य में उन्नति होना कभी संभव नहीं क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता। वे सदैव अखंड और एकरस रहते हैं। भाषा मनुष्य का एक आत्मिक साधान है, इसकी पुष्टि महाशय ट्रीनिच ने इस प्रकार की है-ईश्वर ने मनुष्य को वाणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुध्दि दी है, क्योंकि मनुष्य का विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है। | ||
650 | _aLanguage science thesaurus | ||
942 | _cB |