000 | 03691nam a22001697a 4500 | ||
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999 |
_c346677 _d346677 |
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003 | 0 | ||
005 | 20220606215205.0 | ||
020 | _a9789390743896 | ||
082 | _aUK 891.4303 JOS | ||
100 | _aJoshi, Prayag | ||
245 | _aUttarakhand ki lokgathyein: ek vivechan | ||
260 |
_aDehradun _bSamay sakshay _c2021 |
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300 | _a224 p. | ||
520 | _aकुमाउँनी; गढ़वाली और जौनसारी, उत्तराखण्ड की तीन प्रमुख भाषायें हैं। इन तीनों में संकलित लोक गाथाओं के अध्ययन पर, विगत सदी के नब्बे के दशक में प्रकाशित हुई किताब का यह कतिपय परिवर्तनों के साथ संशोधित संस्करण है। पहले की किताब दो जिल्दों में छपी थी। इसमें दोनों एक हो गये हैं। दोनों की सामग्री को एक में समेटने की कोशिशों में किताब पुनर्नवीन हो गई है। नंदादेवी की गाथा की दो श्रुतियों का विश्लेषण और रंगमंच पर प्रस्तुत करने के ध्येय से तैयार की गई 'गौरा-महेश्वर' की गाथा इसमें नयी जोड़ी गई है। लोक गाथा का कोई एक रचयिता नहीं होता। उसमें अन्तर्निहित 'वस्तु' का; देश, काल और परिस्थितियों की प्रेरक शक्तियाँ निर्माण करती हैं। सामूहिक-मानस में सुरक्षित उसके बीज, अंकुरित होने के लिए हवा, पानी, रोशनी और मिट्टी की प्रतीक्षा में रहते हैं। अनुकूल वक्त आने पर, सामान्य जन-समूह में ही कोई विलक्षण आदमी उसे हवा दे देता है। गाने, बजाने, नाचने की नैसर्गिक लोकादतों में उसका अंकुरण हो जाता है और जीवन की अनेकानेक शाखा प्रशाखाओं में बढ़ते-बढ़ते 'गाथा' विकसित होती चली जाती है। उसे, भाषा में पहली बार किसने समायोजित किया, उसमें कितना कुछ किसने जोड़ा और समाज में फैलते-फैलते उसकी कितनी श्रुतियाँ बन गई, यह बताना मुश्किल है। उत्तराखण्ड में, लोकगाथाओं को व्यावसायिक रूप से गाने का हुनर जिन जातियों की विरासत है, उन पर इस किताब में बहुत थोड़ा ही लिखा जा सकता है। उनका व्यापक सर्वे करने की जरूरत है। | ||
650 | _aGarhwali folk | ||
942 | _cB |