000 | 03385nam a22001697a 4500 | ||
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020 | _a9789391277529 | ||
082 | _aH 809.4 SHU | ||
100 | _aShukla, Wagish | ||
245 | _aPratidarsh: kuch nibandh | ||
260 |
_aDelhi _bSetu _c2021 |
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300 | _a560 p. | ||
520 | _aवागीश शुक्ल न सिर्फ विद्वान-आलोचक हैं, वे अपनी पीढ़ी और उससे पहले की पीढ़ी में भी अनोखे हैं। उनकी विद्वता संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी, अँग्रेज़ी, व्याकरण, आधुनिक गणित और उत्तर आधुनिकता तक विस्तृत है। वे इसका बहुत विरल उदाहरण हैं कि इस तथाकथित उत्तर आधुनिक समय में परम्परा बल्कि कई परम्पराओं में गृहस्थ होकर साहित्य, विचार आदि पर लिखने के लिए किस तरह की कुशाग्र समझ, किस तरह के अवधारणात्मक साक्ष्य और प्रमाण, किस तरह की व्याख्या क्षमता की दरकार होती है। उनकी आलोचना में स्मृति सदा सक्रिय रहती है, कई बार इस तरह कि मानो सारा लिखना पहले कुछ हुए को याद करना और समझना है। वागीश शुक्ल ने ऐसे लिखा है कि हर बार सम्बन्धित विषय का कोई न कोई नया और अक्सर अप्रत्याशित पक्ष उन्मीलित होता है। यह ऐसी आलोचना-वृत्ति है जो सिर्फ़ दिखाती नहीं, उकसाती भी है। समकालीन आलोचना में अप्रत्याशित का ऐसा रमणीय कम है, वागीश जी के यहाँ बहुत है। उनके काम का एक हिस्सा आधुनिकता के दबाव या झोंक में परम्परा की दुर्व्याख्या या कुपाठ को प्रश्नांकित करता है। यह एक ज़रूरी काम इसलिए है कि यह हमें आधुनिकता की सीमाएँ पहचानने और उसके कुछ अतिचारों की शिनाख़्त करने में मदद करता है। वागीश जी के राजनैतिक रुझान को आधार बना कर उनको लांछित करना आसान है, उनके तर्कों और तथ्यों का सुसंगत प्रत्याख्यान करना कठिन। | ||
650 | _aEssays | ||
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