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082 _aH 891.43309 BEE
100 _aBeerbal, Punkaj
245 _aPremchand Ke Upanyason Aur Naari
260 _aJaipur
_bPeradise
_c2021
300 _a249 p.
520 _aप्रेमचन्द नर-नारी की अविभाज्य एकता के समर्थक तो थे किन्तु वे उसके व्यक्तित्व के नितान्त निष्पीड़न के विरोधी भी थे। नर-नारी का सह-अस्तित्व ही उन्हें स्वीकार्य था, नारी का निरास्तित्व नहीं। डॉ. महेन्द्र भटनागर द्वारा मंगलसूत्र की समीक्षा के निम्नोद्धत कथन से भी प्रेमचन्द के इसी मत की पुष्टि होती है—"मरदों ने स्त्रियों के लिए ओर कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पतिव्रत उनके अन्दर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि उनका अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं। वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती है। उसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं।" प्रेमचन्द-युगीन समाज ने नारी को घर की चारदीवारी में यहाँ तक बन्दी बना रखा था कि सामाजिक जीवन में उसकी कोई भागीदारी ही नहीं रही थी। प्रेमचन्द ने इसीलिए अपने उपन्यासों में वर्णित सामाजिक क्रिया-कलाप में नारी को अग्रगामी बनाया। डॉ. भरतसिंह के मतानुसार भारत की अवनति के अन्य अनेक कारणों में उन्होंने नारी की दुर्दशा को भी एक प्रमुख कारण माना है। वे नारी-विकास के बिना समाज-सुधार एवं राष्ट्रोत्थान की कल्पना भी नहीं कर सकते। यही कारण है कि उन्होंने अपने जिस-जिस उपन्यास में कोई किसी प्रकार की योजना बनाई, उसमें पुरुष की अपेक्षा नारी को अधिक दायित्वपूर्ण कार्य सौंपे हैं।" प्रत्येक क्षेत्र में नर की अपेक्षा नारी को विशेष सम्मान देने के बावजूद— "प्रेमचन्द को स्त्री-पुरुष का अलगाव मान्य नहीं है। स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरा अपूर्ण है। दोनों के प्रेमपूर्ण सम्मिलन में ही जीवन के अलौकिक आनन्द की सार्थकता है। प्रेमचन्द एक-दूसरे के अभाव में स्त्री-पुरुष की दुर्गति मानते हैं।" प्रेमचन्द भारतीय परम्पराओं का समर्थन और पाश्चात्य प्रभाव की आलोचना करते थे।
650 _aPremchand
650 _aNaari
942 _cB