000 04047nam a22001937a 4500
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005 20220426162356.0
020 _a9789380441078
082 _aH 709.54 SHA
100 _aShah, Haku.
245 _aSanchayita : essays by Haku Shah
260 _aBikaner
_bVagdevi Prakashan
_c2015
300 _a420 p.
520 _aनयी सहसाब्दी के इन आरम्भिक वर्षों में जब भारतीय जीवन, समाज व रचनात्मकता भूमण्डलीकृत समय की चुनौतियों का सामना कर रही है तब भारतीय लोकविद्या के पुनराविष्कार का मूलगामी उद्यम व केन्द्रीय प्रतिश्रुति उस सांस्कृतिक बहुवचन के चरितार्थन में भी रूपायित हो सकती है जिसका नाभिक, भारतीय कला-चेतना व दृष्टि के सनातन स्रोतों से अपना उपजीव्य ग्रहण करता व मानवीय जिजीविषा व सर्जनात्मकता के स्वधर्म से स्वयं को सींचता है। यहाँ सर्जना व जीवन परस्पर अंगांगी भाव से अभिन्न व स्वस्तिकर रीतियों से उजागर हैं और समष्टि-व्यष्टि के अभेद में रचनात्म होने का आनन्द है। इसीलिए वरिष्ठ चित्रकार व लोकविद्याविद् हकु शाह के चिन्तन-कर्म में आनन्द कुमारस्वामी का यह वाक्य केन्द्रीय अर्थ ग्रहण कर लेता है - एक कलाकार एक विशिष्ट प्रकार का मनुष्य नहीं है, बल्कि मनुष्य एक विशिष्ट प्रकार का कलाकार है अन्यथा वह एक मानवीय प्राणी से कुछ कमतर है। दरअसल, यही वह रचनात्मक अभीप्सा है, हम सभी के भीतर यही वह कलाकार है जो सुषुप्त है और जिसे जागृत करने के लिए हकुभाई आजीवन साधनारत रहे हैं। उनके लिए लोकविद्या स्वाध्याय का ही दूसरा नाम है। उनका अन्तराफलक अकादमिक कोष्ठकों व कोटियों से निर्मित संचालित न होकर स्वयं को एक ऐसे नैसर्गिक बाने में ले आता है जो पूरी तरह सरल-सादा व सहज है। उनके पाठ के रूप-विन्यास व विवक्षित परास में ऋजु नैरन्तर्य, प्राणवन्त अन्तरंगता, सूत्रधर्मी विवरणात्मकता, सुबोध व सरस गद्य की पठनीयता तथा विरल अन्तर्दृष्टि की रसोत्तीर्ण साखी है। यह संचयिता श्री हकु शाह के समग्र चिन्तन व अन्तःकरण का नवनीत है।
650 _aArt, Indic
650 _aFolk art
700 _aDaiya, Piyush (ed.)
942 _cB