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020 _a8185127433
082 _aH SHA R
100 _aShah, Ramesh Chandra
245 _aPunarvas
260 _aBikaner
_bVagdevi Prakashan
_c2009
300 _a151 p.
520 _aआलमपुर के प्रथम नागरिक श्रीचन्द तिवाड़ी को खगमराकोट के माली ने एक नींबू भेंट किया था, जिसे श्रीचन्द ने ग्रहण करने से इनकार कर दिया था यह कहते हुए, कि 'यह नींबू अखण्ड नहीं है, इसके भीतर एक और नींबू है।' जानते बूझते गुमनामी का वरण करने पर तुले हुए इस उपन्यास के चरितनायक को महीनों अपने परिवार से दूर आलमपुर में आधा-अधूरा वानप्रस्थ भुगत चुकने के बाद आखिर क्यों यह मानने को मजबूर होना पड़ता है कि वह नींबू उसकी नियति है, जिससे उसे फिर भी जूझते रहना है ? .'मेरी कहानी भी कुछ इसी तरह की है, चौधरी; फ़र्क सिर्फ़ इतना कि मैं इनकार नहीं कर सकता। तुम ही बताओ, इस विडम्बना का क्या इलाज़ है ? क्या हम कहीं भी, कभी भी साबुत नहीं हो सकते, अखण्ड नहीं हो सकते ?' देखा जाय तो इस प्रश्न की व्याकुल प्रतिध्वनि और उसका उत्तर पाने की छटपटाहट ही समूचे उपन्यास में रची हुई है। हर प्रसंग, हर प्रकरण अपने आप में अनिवार्य और पाठक के चित्त को रमाने वाला होने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ झलकाता चलता है जो उस अन्तर्ध्वनि को उत्तरोत्तर उजागर करते हुए अन्ततः एक ऐसे संकल्प में पर्यवसित होता है जो उस विडम्बना को ही नहीं, उससे जूझते रहने की अनिवार्यता को भी यथोचित अर्थ और गरिमा प्रदान करता प्रतीत होता है। प्रोफेसर नाथ भले दर्शनशास्त्री हों, पर हैं वे हमारे निकट पड़ौसी ही। बाकी चरित्र भी पाठक को जाने पहचाने ही लगेंगे। वही क्यों, उनके सरोकार और उनकी समस्याएँ भी। मसलन, यह चरितनायक, जो अब अपनी गिरस्ती पर काफ़ी मेहनत करने की ज़रूरत महसूस करने लगा है मानो दाम्पत्य भी उसकी तथाकथित योग-साधना का ही अंग हो— उसका क्या मतलब है ? दमयन्ती और उसके बीच की दूरी क्या सचमुच पाटी जा सकेगी ?.... और, इन लोगों का यह 'स्वराज क्लब' क्या है जिसे चरितनायक 'हमारा साझे का सपना' कहता है: 'बच्चों के खेल सरीखा उजला और बेहद संजीदा' ? तो क्या यह सच है कि बचपन ही बुढ़ापे में फिर से लौटकर आता है एक दूसरा ही बचपन। पहले वाले बचपन की तरह फोकट में मिला हुआ नहीं, बल्कि हमारे खुद के द्वारा जीकर कमाया गया बचपन ? जिस 'रूटीन' से, निष्फलता के जिस एहसास से अकुलाकर इस कथाकृति का नायक खूँटा तुड़ाकर निकल भागा था—क्या वह सचमुच उससे उबर सका या उबर सकेगा ? या कि यह एक जाल से निकलकर दूसरे जाल में फँसने जैसा होगा ? पुनर्वास ही असली इष्ट है, यह तो ठीक है। पर कैसा पुनर्वास? किसका पुनर्वास? खैर, इन बातों को लेकर पाठक की उत्सुकता का शमन तो इस उपन्यास को पढ़ चुकने के बाद ही संभव होगा।
650 _aHindi-Fiction
942 _cB